________________
अनेकान्त 60/3
25
9. पित्तादि से पीड़ित श्रावक विशेष को निर्देश अन्त समय में साधक पुद्गल में आसक्त न हो इसका ध्यान रखते हुए निर्यापकाचार्य पित्तादि से पीड़ित साधक को मरण से कुछ समय पूर्व ही जल का त्याग करवाते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इसी बात का निर्देश करते हुए प. मेधावी कहते हैं कि- पित्तकोप, ऊष्णकाल, जलरहित प्रदेश तथा पिनप्रकृति इत्यादि में से किसी एक भी कारण के होने पर निर्यापकाचार्य को समाधिमरण के समय जल पीने की आज्ञा उसके लिए देनी चाहिए तथा शक्ति का अत्यन्त क्षय होने पर एवं निकट मृत्यु को जानकर धर्मात्मा श्रावक को अन्त में जल का भी त्याग कर देना चाहिए।
अन्त समय तक जल के निर्देश के पीछे गहरा भाव छिपा है, जिसका अभिप्राय है कि धर्म सहित मरण ही सफलता का सूचक है और इसी बात की पुष्टि करते हुये पं. आशाधर जी ने कहा कि
आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे सुधा।
सत्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम्।।19 अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु पूर्व तक भी धर्म पालन किया, परन्तु मरण समय धर्म की विराधना होती हैं तो किया गया धर्म व्यर्थ है। किन्तु जीवन भर कुछ भी नहीं किया और मरण धर्मसहित किया तो वह धर्म चिरकाल में संचित पापों का प्रक्षालन करने वाला है।
इसी बात को एक दृष्टान्त के माध्यम से वे कहते हैं कि जीवन-भर गजा शस्त्र चलाना सीखे और युद्धक्षेत्र में शस्त्र चलाना भूल जाय तो जीवन भर किया गया समस्त शस्त्राभ्यास व्यर्थ है।
10. समाधि साधक की आद्यान्त क्रियायें __ साधक द्वारा जो भी पाप कृत, कारित, अनुमोदना से पूर्व में जीवनपर्यन्त गृह व्यापार में हुए है अथवा मिथ्यान्व, अविरति, कपाय,