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अनेकान्त 60/3
दीक्षा) ही कहा है, परन्तु अन्त समय में जिसने परिग्रहादि उपाधियाँ छोड़ दी हैं, वे स्त्रियाँ भी पुरुष के समान औत्सर्गिक लिङ्ग (निर्वस्त्र दीक्षा) ग्रहण कर सकती हैं । 16
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8. विचलित साधक का स्थितिकरण
जब कोई साधक स्वीकार किये गये समाधिमरण से विचलित होने लगता है, तब निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि वह साधक का स्थितिकरण करें, क्योंकि जब कोई सल्लेखना धारक अन्नजल के त्यागोपरान्त विचलित होकर पुनर्ग्रहण की भावना करें, तो उसे ग्रहण करने योग्य विविध प्रकार की उत्तम सामग्री दिखाना चाहिए । यदि कदाचित् अज्ञानता के वशीभूत होकर वह आसक्त होने लगे तो शास्त्र सम्मत अनेक कथाओं द्वारा साधक के वैराग्य में मदद करनी चाहिए । साथ ही यह भी बताना चाहिए कि तीनों लोकों में एक भी ऐसा पुद्गल परमाणु शेष नहीं है, जिसे इस शरीर ने नहीं भोगा है । अतः इस मूर्तिक ( भोजनादि) से अमूर्तिक आत्मद्रव्य का उपकार किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है। अपितु यह तो वह अद्भुत समय है जब मन की एकाग्रता अन्य विषयों से हटाकर आत्मकल्याण की भावना में नियुक्त करने पर अनन्तानन्त काल से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा शीघ्र होती है, क्योंकि अन्त समय का दुर्ध्यान अधोगति का कारण बन जाता है । इसी अन्त समय की लालसा के दुष्परिणाम को दर्शाते हुए सागारधर्मामृत में स्पष्ट लिखा है कि
क्वापि चेत्पुद्गले सक्तो म्रियेथास्तद् ध्रुवं परेः । तं कृमीभूय सुस्वादुचिर्भटा सक्त भिक्षुवत् । । 17
अर्थात् जिस पुद्गल में आसक्त होकर जीव मरेगा उसी जगह उत्पन्न होकर संचार करेगा । जैसे तरबूज में आसक्त होकर मरा साधु उसी में कीड़ा बनकर उत्पन्न हुआ था ।