________________
20
अनेकान्त 60/3
देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम्।
यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येषः साधकः।।' अर्थात् जो मरणान्त में सर्वांगीण ध्यान से उत्पन्न हुये हर्ष से युक्त होकर देह, आहार और मन, वचन तथा काय के व्यापार के त्याग से उत्पन्न ध्यानशुद्धि के द्वारा आत्मशुद्धि की साधना करता है वह साधक है।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी साधक का यही लक्षण बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि
भुक्त्यङ्गेहापरित्यागाद्धयानशक्त्याऽऽत्मशोधनम्।
यो जीवितान्ते सोत्साहः साधमत्येषः साधकः ।। अर्थात् जो उत्साहपूर्वक मग्ण समय में भोजन, शरीर तथा अभिलाषा के त्यागपूर्वक अपनी ध्यानजनित शक्ति से आत्मा की शुद्धता पूर्वक साधना करता है। उसे साधक कहते हैं। 4. सल्लेखना के भेद मागारधर्मामृत में कहीं भी मल्लेखना के भंटों का वर्णन नहीं है। धवला टीका, भगवती आगधना तथा अन्य सल्लेखना सम्बन्धी ग्रन्थों में दो या नीन भदों का प्रायः वर्णन मिलता है।
सामान्य रूप से सल्लेखना के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो भेट भगवती आराधना में वर्णित हैं
सल्लेहणा य दुविहा अब्मंतरिया य बाहिरा चेव।
अब्भतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ।। ___ अर्थात् सल्लेखना दो प्रकार की है आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर सल्लेखना कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर में ।
इसी प्रकार धर्मसंग्रह श्रावकाचार में भी वर्णित है कि- क्रम-क्रम से रागादि के घटाने को वाह्य सल्लेखना कहते हैं। राग, द्वेप, मोह, कपाय, शोक और भयादि का त्याग करना हितकारी आभ्यन्तर सल्लेखना है।