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“सागारधर्मामृत में सल्लेखना "
श्री आनन्द कुमार जैन
1. सल्लेखना शब्द की व्युत्पत्ति एवं
परिभाषा -
जैन परम्परा के आचार नियमों के अन्तर्गत सल्लेखना एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है । सल्लेखना शब्द सत् + लेखना का निष्पन्न रूप है। सत् से तात्पर्य समीचीन या सम्यक् है तथा लेखना शब्द 'लिखू' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय होकर स्त्रीत्व विवक्षा में 'टाप्' प्रत्यय के संयोग से निर्मित है । लिख धातु कई अर्थों में प्रयुक्त होती है । यथा
1. लिखना, प्रतिलिपि करना
2.
खुरचना, छीलना
3.
चराई, स्पर्श करना
4. पतला करना, कृश करना
5. ताड़ पत्र पर लिखने के लिए
किन्तु उक्त विविध अर्थों में से पतला करना, कृश करना या दुर्बल करना अर्थ ही यहाॅ अभीष्ट है । आ. पूज्यपाद ने भी इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए लिखा है कि- अच्छी प्रकार से काय तथा कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है ।
2. सल्लेखना के पर्यायवाची नाम
शास्त्रों में सल्लेखना के अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं। जिनमें समाधिमरण, संथारा, अन्तिम विधि, आराधनाफल, संलेहणा और सन्यास आदि प्रचलित हैं ।
3. समाधि साधक का लक्षण
पं. प्रवर आशाधर जी ने 'सागार धर्मामृत' में पूर्वाचार्यों द्वारा समाधि की परिभाषा को स्वीकार करते हुए अष्टम अध्याय के प्रारम्भ में समाधिसाधक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि -