________________
अनेकान्त 60/1-2
123
___ जैन स्तोत्रों में अनेक स्थलों पर जिन-स्तुति द्वारा कर्मों के विनष्ट होने की चर्चा की गई है। 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है
हृदयवर्तिनि त्वयि विभो! शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म बन्धाः। सद्यो भुजंगम-मया इव मध्य-भाग
मम्यागते वन शिरनण्डि निचन्दनस्य।। अर्थात् हे प्रभो! आप अब प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं तब उनके सघन कर्मों के बन्धन क्षण भर में ढीले हो जाते हैं। जैसे वन मयूर के आने पर चन्दन वृक्ष के मध्य भाग में लिपटे हुए भयंकर सर्प तत्काल ढीले पड़ जाते हैं।
सन्दर्भ : 1. रुचं बिभर्ति ना धीर नाथामि स्पष्टवेदनः।
वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः।। आचार्य समन्तभद्र - स्तुति विद्या 60 2. सवार्थसिद्धि में 6/24 का भाष्य 3. उपासकाध्ययन 202 4. संवेओ निव्वेओ जिंदण गरहा य उवसमो भत्ती। .
वच्छल अणुकम्पा अट्ठगुणा हुंति सम्मत्ते।। लाटी सहिता में उद्धृत 2/18 5. 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' तत्त्वार्थ सूत्र 1/2 6. देवगुरुम्मि य भत्ती साहम्मी य संजुदेसुं अणुरत्तो।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होई जोई सो।। मोक्षपाहुड़ 52 7. ये कुर्वन्तु तपांसि दुर्धराधियो ज्ञानानि सञ्चिन्वतां ।
वित्तं वा वितरन्तु देव तदपि प्रायो न जन्मच्छिदः । एषा येषु न विद्यते तव वचः श्रद्धावधानोधुरा। दुष्कर्माङ्करकुञ्चवज्रदहनाद्योता वदाता रुचिः।। संसाराम्बुधिसेतु बन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मीवन