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अनेकान्त 60/3
“आद्यश्च मोहः शिवमार्गशत्रुः, शेषक्षतेस्तु क्रमतो विकासः। तस्येति केचिच्च विचारवन्तो,
गुणे चतुर्थे किल सूत्रपातः।।36 ।।" महाग्रन्थ धवल में 'सिद्धा ण जीव' कहकर सिद्धों को जीव नहीं कहा गया है। इस कथन से भ्रान्ति की संभावना है। अतः आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि यह कथन सर्वथा नहीं है, अपितु प्राणों कि अपेक्षा है। सिद्धों में प्राणराहित्य होने से ऐसा कहा गया है। वे प्राणों से रहित तो हो गये हैं, किन्तु जीवन से नहीं। उनका तर्क है कि मोक्ष में जब सुख है, तो उसका भोक्ता जीव भी मानना ही होगा। भोग्य वस्तु का क्या प्रयोजन है? उन्होंने कहा है
“सिद्धा न जीव इति सर्वथा न, प्राणैर्विमुक्ता न तु जीवनेन। मोक्षे सुखं चेत् खलु तस्य भोक्ता,
भोक्त्रा विना तत्किमु भोग्यवस्तु।।105 ।।" अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का चैतन्यचन्द्रोदय मे किया गया वर्णन शास्त्रानुकूल तो है ही, साथ ही इस वर्णन में आचार्यश्री की युगचेतना का भी प्रतिबिम्ब हुआ है। इस प्रसंग में अशुभोपयोग की प्रवृत्तियो का वर्णन करते हुए अन्य अशुभ प्रवृत्तियों के साथ ‘गष्ट्रीयतायाः प्रतिलोमिताऽपि' (पद्य 41) कहकर आचार्यश्री राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को अशुभोपयोग मे समाविष्ट कर ऐसे कार्यों में संलग्न धर्मध्वज गृहस्थों से कुछ कहते हुए प्रतीत होते हैं। प्रसंगतः विद्वद्वगं को भी उन्होंने चारित्र धारण करने की प्रेरणा देते हुए लिखा है
“सुखस्य मूल्यं खलु चेतनैव, सज्ज्ञानहीना किमु सास्तु मुक्तिः । मुक्तः सुखायाध्रियते चरित्रं, विमुक्तपापैश्च विदांवरैस्तैः।।18।।"