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अनेकान्त 60/3
5. वाणिज्यकर्म
“वाणिज्यं वणिजां कर्म27" अर्थात् उत्पादित व निर्मित वस्तुओं का क्रय-विक्रय करके अर्थोपार्जन करना वाणिज्यकर्म है। ऋषभदेव से इसकी व्यावहार शिक्षा प्राप्त कर कुछ लोगों ने यह वणिक-वृत्ति अपना ली। राज्यपुत्रों के योग्य आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति - इन चतुर्विध राजविद्याओं में28 वार्ता का भी उल्लेख होने से स्पष्ट होता है कि वाणिज्यकर्म राजपुत्रों के लिए भी अभिहित था। विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती करना वार्ता है। वार्ता की व्याख्या कृषि, पशुपालन एवं व्यापार के रूप में भी की जाती है। आदिपुराण" में वाणिज्यकर्म के साथ पशुपालन और पशव्यापार को महत्व दिया गया है क्योंकि कोई भी राष्ट्र इनके विना अपना विकास नहीं कर सकता है। तत्कालीन पशुपालक पशुपालन में अति सतर्कता एवं सावधानी रखता था तथा पशुपालन की समस्त पद्धति से परिचित था । पशुओं के क्रय-विक्रय के मध्य एक प्रतिभू होता था जिसकी जमानत पर पशु क्रय किए जाते थे । व्यापार देश-विदेश में भी फैला हुआ था और विदेशगमन जलमार्ग व वायुमार्ग दाना से होता था।
6. शिल्पकर्म ___“शिल्प स्यात् करकौशलम्' अर्थात् हाथों की कुशलता से धनोपार्जन करना शिल्पकर्म है। हस्तकौशल के कार्यों में बढ़ई, लौहार, कुम्हार, सुनार, वस्त्रकार के अतिरिक्त चित्र बनाना, कढ़ाई-बुनाई आदि कार्य भी इसी में शामिल हैं। ऋषभदेव ने स्वय अपने हाथों से मिट्टी के वर्तन बनाकर दिखलाये एवं कण्ठ व वक्षस्थल के अनेक आभूषण बनाये। आदिपुराण' से ज्ञात होता है कि ऋपभपुत्र भरत के पास भद्रमुख नामक शिलावटरत्न अर्थात् इंजीनियर था, जो मकान एवं राजभवनो के निर्माण करने की तकनीक में अत्यन्त दक्ष था। इसने भरत चक्रवर्ती के लिए गर्मी को नप्ट करने वाला धारागृह, वर्षा में निवास करने योग्य गृहकूटक, सभी दिशाओं को देखने के लिए गिरिकूटक