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अनेकान्त 60/1-2
मिथ्यात्व एवं सासादन गुणस्थानों में कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभलेश्याओं से और चतुर्थ गुणस्थान में कापोतलेश्या के जघन्य अंशो से तथा पर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्वादि चारों गुणस्थानों में तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त। यहां अर्थ ठीक किया है अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में चतुर्थ गुणस्थान में कापोतलेश्या का जघन्य अंश होता है।
कृपया त्रिलोकसार गाथा 794 भी देंखें। वरदाणदो-ओही-अर्थविदेह में सत्पात्र दान के फल से जिन्होंने मनुष्यायु का बंध करने बाद क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है अर्थात् क्षायिक सम्यग्दृष्टि हुये हैं वे यहाँ तृतीग काल के अंत में जघन्य भोग भूमि में 14 कुलकर हुये थे।
(यह भी विशेष है कि मनुष्यायु का बंध करके, दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले, यदि कृतकृत्य वेदक अवस्था में मरण करें तो भोग भूमि में सम्यक्त्व सहित चतुर्थ गुणस्थान में उत्पन्न होते है।)
इन सबसे स्पष्ट है कि भोगभूमिजों के अपर्याप्त दशा में प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ गुणस्थान होते हैं। _____3. पृष्ठ 78 पर लिखा है-“कुमानुष द्वीपों में तिर्यच नही पाये जाते हैं"। यह भी ठीक नहीं है। कृपया तिलोयपण्णत्ति 4/2552 को देखने का कष्ट करियेगा। गव्भादो ते मणुवा.....तारुण्णा-अर्थ-वे मनुष्य और तिर्यच, युगल रूप में गर्भ से सुख पूर्वक निकलकर अर्थात् जन्म लेकर समुचित दिनों में यौवन धारण करते हैं (यह वर्णन कुभोगभूमियों का है) आगे गाथा न. 4/2555 भी देखियेगा। इसमें भी तिर्यचों का वर्णन दिया है।
जैन तत्वविद्या (लेखक-मुनि प्रमाण सागर जी) ज्ञानपीठ प्रकाशन पृष्ठ 86-87 में लिखा है-“कुभोगभूमि में सभी मनुष्य और तिर्यच युगल रूप में जन्म लेते हैं। और युगल ही मरते हैं।'
आपका
रतनलाल बैनाड़ा 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002