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अनेकान्त 60/1-2
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इष्टदेवताओं को मङ्गल स्वरूप माना है। दिगम्बर जैन परम्परा वालों ने अपने इष्ट-देवताओं किंवा आचार्यों का स्मरण करते हुये उन्हें मङ्गल स्वरूप माना है। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैनों ने प्रथम दो अर्थात् भगवान महावीर स्वामी और गौतम स्वामी को तो मङ्गल स्वरूप स्वीकार किया है किन्तु बाद में परम्परा-भेद हो जाने के कारण उन्होंने कुन्दकुन्द के स्थान पर स्थूलभद्र को मङ्गल स्वरूप स्वीकार किया है। अर्थात् परम्परा भेद के कारण हमारे मगल स्वरूप आचार्य भी पृथक्-पृथक् हो गये। जबकि दोनों आचार्य अपनी-अपनी परम्परा के पोषक हैं और तप-त्याग के कारण मङ्गल स्वरूप हैं। ___ अब यहाँ यह ज्ञात करना मुश्किल है कि वैदिक और जैन-इन दोनों परम्पराओं में कौन प्राचीन है और कौन अर्वाचीन, निश्चित है कि दोनों अपने को प्राचीन कहना पसन्द करेंगे तथा अर्वाचीन कहलाने से परहेज करेंगे। जबकि मेरी दृष्टि में तथ्य कुछ और भी हो सकता है। गङ्गा का जल सतत प्रवाहमान है उसका समान रूप से उपयोग सभी परम्पराएँ करती है। कोई यह नहीं कह सकता है कि मैंने गङ्गाजल से सिंचित पेड़-पौधों, वनस्पतियों, साग-सब्जियों अथवा अन्न आदि का उपयोग सबसे पहले किया है, अतः गङ्गा पर मेरा एकाधिकार है और यदि ऐसा कोई कहता भी है तो उस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता
है।
शब्दराशि जब से अस्तित्व में आई है तब से सभी परम्पराएँ उसे ग्रहण कर अपनी परम्परा के अनुसार आकार दे रही हैं। अब अपनी-अपनी परम्परा को प्राचीनतम सिद्ध करने का व्यामोह उन्हें परस्पर झगड़ा करने को आमन्त्रित कर रहा है।
आदान-प्रदान का एक कारण यह भी है कि बड़े-बड़े आचार्य अपने सम्प्रदाय में उचित सम्मान न पाये जाने के कारण तथा दूसरी परम्परा से प्रभावित होने के कारण अथवा अन्य किसी कारणवशात् अपना सम्प्रदाय तो बदल लेते थे, किन्तु प्रतीक रूप में वे अपनी परम्पराएँ