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अनेकान्त 60/1-2
आलोचना करके पेय के अतिरिक्त विविध आहार को त्याग देता है, उसे सल्लेखना कहते हैं।
सल्लेखना के भेद
भगवती आराधना में कहा गया है कि सल्लेखना दो प्रकार की हैआभ्यन्तर और बाह्य। आभ्यन्तर सल्लेखना तो कषायों में होती है तथा बाह्य सल्लेखना शरीर में। फलतः कषायों के कृश करने को आभ्यन्तर तथा काय को कृश करना बाह्य सल्लेखना हैं। श्री जयसेनाचार्य ने पञ्चास्किाय की तात्पर्यवृत्ति में कषाय सल्लेखना को भावसल्लेखना तथा काय सल्लेखना को द्रव्यसल्लेखना कहा है और इन दोनों के आचरण को सल्लेखना काल कहा है। उन्होंने लिखा है
“आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानन्तज्ञानादि गुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनूकरणं भावसल्लेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकालः। 5 यहाँ यह कथ्य है कि कषायसल्लेखना या भावसल्लेखना और कायसल्लेखना या द्रव्यसल्लेखना में साध्य-साधक भाव संबन्ध है। अर्थात् बाह्य काय या द्रव्य सल्लेखना आभ्यन्तर कषाय या भाव सल्लेखना का साधन है। सल्लेखना कब?
सल्लेखना के अर्ह व्यक्ति का कथन करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि जिसके दुःसाध्य व्याधि हो, श्रामण्य की योग्यता को हानि पहुँचाने वाली वृद्धावस्था हो अथवा देव-मनुष्य या तिर्यचकृत उपसर्ग हो तो वह व्यक्ति भक्तप्रत्याख्यान करने के योग्य है। अनुकूल वान्धव या प्रतिकूल शत्रु जब चारित्र का विनाश करने वाले बन जायें, भयानक दुर्भिक्ष पड़ जाये या व्यक्ति जंगल में भटक गया हो। जिसकी चक्षु या श्रोत्रेन्द्रिय दुर्बल हो गई हो, जो जंघा-बल से हीन हो अथवा विहार करने में समर्थ न हो, वह व्यक्ति भक्तप्रत्याख्यान के योग्य है।'