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अनेकान्त 60/1-2
हैं। सम्यग्दर्शन भुवनत्रय से पूजित है, तीन प्रकार की मूढ़ता से रहित है। संसार रूपी लता का अन्त करने वाला है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि दर्शन तभी सम्यक् हो सकता है, जब जीव जिनेन्द्र का भक्त हो। उन्होंने जिनेन्द्र-भक्ति का पर्यायवाची माना है - देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति । ___ आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि हे देव! जिनकी आपके वचनों में एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्म रूपी अंक के समूह को भस्म करने के लिए वज्राग्नि के प्रकाश की तरह निर्मल हैं, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें, कितना ही ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दें, फिर भी जन्म-परम्परा का छेदन नहीं कर सकते। और भी आगे लिखते हैं हे नाथ! संसार रूपी समुद्र के लिए सेतुबन्ध के समान, क्रम से उत्पन्न होने वाले रत्नत्रय रूपी वन के विकास के लिए अमृत के मेघ के समान, तीनों लोकों के लिए चिन्तामणि रत्न के समान और कल्याणकारी कमल समूह की उत्पत्ति के लिए तालाब में तुल्य सम्यक्त्वरूपी रत्न को जो पुण्यात्मा हृदय में धारण करता है उसे स्वर्ग और मोक्ष रूप लक्ष्मी की प्राप्ति सुलभ है।'
2. ज्ञान भक्ति :- इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान का विषय बहुत थोड़ा है। अवधिज्ञान भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर केवल रूपी पदार्थों को ही विषय करता है। मनःपर्यय का भी विषय बहुत थोड़ा है और वह भी किसी मुनि के हो जाय तो आश्चर्य ही है। केवलज्ञान महान है किन्तु उसकी प्राप्ति इस काल में सुलभ नहीं है। एक श्रुतज्ञान ही ऐसा है जो समस्त पदार्थों को विषय करता है
और सुलभ भी है। जिसे देवों ने सिर पर धारण किया, गणधरों ने अपने कान का भूषण बनाया, मुनियों ने अपने हृदय में रखा, राजाओं ने जिसका सार ग्रहण किया और विद्याधरों के स्वामियों ने अपने हाथ में,
आंखों के सामने और मुख में स्थापित किया वह स्याद्वाद श्रुत रूपी कमल मेरे मानसरूपी हंस की प्रसन्नता के लिए हो। आगम में कहे हुए