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अनेकान्त 60/1-2
है और जहां-जहां श्रद्धा होती है, मन भी वहीं स्थिर हो जाता है। आचार्य श्री पूज्यपाद ने लिखा है
यत्रैवाहितधीः पुंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते।। यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते।।
- समाधि शतक श्लोक 15 आचार्य नरेन्द्रसेन के अनुसार :
देवे संघे श्रुते साधौ कल्याणादि महोत्सवैः। निर्व्याजाराधना ज्ञेया भक्ति भव्यार्थसाधिका।।
__ - सिद्धान्तसार 1,75 दोष रहित जिनदेव, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चार प्रकार का संघ, रत्नत्रयाराधक मुनि तथा गर्भजन्मादि पांच कल्याणकों का महोत्सव इत्यादि प्रसंगों में सम्यग्दृष्टि अन्तःकरण पूर्वक इच्छा और कपट रहित जो आराधना करता है वह उसका भक्ति नामक गुण कहा जाता है। यह गुण भव्य अर्थ का अर्थात् पुण्यफलरूप संपत्ति की प्राप्ति करने वाला है। परिणामों की निर्मलता से देवादियों पर अनुराग करना भक्ति है।
सम्यग्दर्शन और भक्ति :- मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का प्रमुख स्थान है। उसी के आधार पर जैन धर्म में सिद्धान्त और आचार आदि का विकास हुआ। संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्व के आठ गुण है। आचार्य उमास्वामि ने तत्त्व के यथार्थ श्रद्धान में सम्यग्दर्शन कहा है।
उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसकी व्याख्या में देव, शास्त्र गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा, भक्ति या अनुराग के साथ जोड़ा। इससे जन-जीवन की पृष्ठभूमि से वह विशेष रूप से अनुस्यूत हुआ क्योंकि श्रद्धा, भक्ति और अनुराग से अन्तःस्थल में सहजयता सात्विक भावों का उद्भव होता है।
ये भाव जब आमुष्मिक - पारलौकिक या आध्यात्मिक भूमिका से