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जैन परम्परा में भक्ति की अवधारणा
- डॉ. अशोक कुमार जैन जैन परम्परा में ज्ञान की प्रधानता के साथ भक्ति का भी प्रमुख स्थान रहा है। आचार्य समन्तभद्र उसी को सुश्रद्धा कहते हैं जो ज्ञानपूर्वक की गई हो। उनके अनुसार ज्ञान के बल पर ही श्रद्धा सुश्रद्धा बन जाती है, अन्यथा वह अन्ध-श्रद्धा भर रह जाती है। उन्होंने ही दूसरे स्थान पर लिखा है- जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श से लोहा स्वर्ण रूप हो जाता है, उसी प्रकार भगवान की भक्ति से सामान्य ज्ञान केवलज्ञान हो जाता है।
भक्ति का अर्थ - भ्वादिगणीय ‘भज् सेवायाम्' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर भक्ति शब्द निष्पन्न होता है। भक्ति' का अर्थ है भाव की विशुद्धि से युक्त अनुराग। देव, गुरु या धर्म आदि में होने वाले विशुद्ध प्रेम या अनुराग को ही भक्ति कहा जाता है। पूज्यपाद आचार्य ने 'भक्ति' की व्याख्या में लिखा है - अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः अर्थात् अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, बहुश्रुत, जिन-प्रवचन आदि में होने वाले विशुद्ध प्रेम, अनुराग को भक्ति कहते हैं।
भगवती आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि के अनुसार - 'अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः।' आचार्य सोमदेव ने लिखा है
जिने जिनागमेसूरौतपः श्रुतपरायणे।
सद्भाव शुद्धि सम्पन्नोऽनुरागो भक्ति रुच्यते ।। अर्थात् जिन, जिनगाम, तप और श्रुत में परायण आचार्य में सद्भाव विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग भक्ति कहलाता है।
भक्ति शब्द से अनुराग, प्रीति, रुचि, श्रद्धान और सम्यक्त्व भी सुने जाते हैं। जहां-जहां मनुष्यों की प्रीति होती है, श्रद्धा भी वहीं देखी जाती