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अनेकान्त 60/1-2
ज्ञान, चारित्र, संयम आदि से युक्त करके और अन्तरंग तथा बहिरंग इन्द्रियों और प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांचों वायुओं का निरोध करके फिर अज्ञान रूपी अन्धकार की परम्परा को नष्ट करने वाले निर्विकल्प ध्यान को करके जो मुक्त हुए उन्हें भी मैं हाथ जोड़ता हूं। इस प्रकार समुद्र, गुफा, तालाब, नदी, पृथ्वी, आकाश, द्वीप, पर्वत, वृक्ष और वन आदि में ध्यान लगाकर जो अतीत काल में मुक्त हो चुके, वर्तमान में मुक्त हो रहे हैं और भविष्य में मुक्त होंगे, तीनों लोकों के द्वारा स्तुति करने के योग्य वे भव्यशिरोमणि सिद्ध भगवन्त हमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूपी मंगल को देवें।
6. चैत्य भक्ति :- भवनवासी और व्यन्तरों के निवास स्थानों में, मर्त्यलोक में, सूर्य और देवताओं के श्रेणी विमानों में, स्वर्गलोक में, ज्योतिषी देवों के विमानों में, कला चलों पर, पाताल लोक तथा गुफाओं में जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की प्रतिमायें हैं, जिन्हें उन स्थानों में रक्षक अपने मकटों में जड़े हए रत्नरूपी दीपकों से पूजते हैं, मैं साम्राज्य के लिए उन्हें नमस्कार करता हूँ।
7. पञ्चगुरुभक्ति :- समवशरण में विराजमान अर्हन्तों की, मुक्तिरूपी लक्ष्मी से आलिंगित सिद्धों को, समस्त शास्त्रों ने पारगामी आचार्यों को, शब्द शास्त्र में निपुण उपाध्यायों को और संसार रूपी बन्धन का विनाश करने के लिए सदा उद्योग शील, योग का प्रकाश करने वाले और अनुपम गुण वाले साधुओं को क्रिया कर्म में उद्यत मैं नमस्कार करता हूं।"
8. शान्ति भक्ति :- संसार के दुःख रूपी अग्नि को शान्त करने वाले और धर्मामृत की वर्षा करके जनता में शान्ति करने वाले तथा मोक्षसुख के विघ्नों को शान्त नष्ट कर देने वाले शान्तिनाथ भगवान शान्ति करें। जो केवल मानसिक संकल्प से होने योग्य पुण्य बन्ध के लिए भी प्रयत्न नहीं करता, उस हताश मनुष्य के मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकते हैं।