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अनेकान्त 60/1-2
होती है।24 न केवल मनुष्य ही अपितु पशु भी समाधिमरण के द्वारा आत्मकल्याण कर सकता है। उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाला सिंह भी मुनि के वचनों से उपशान्त चित्त होकर और संन्यास विधि से मरकर महान् ऋद्धिवान देव हुआ। तत्पश्चात् मनुष्य एवं देव होता हुआ अन्त में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक पुत्र हुआ।
स्पष्ट है कि सल्लेखना सबके लिए कल्याणकारी है तथा प्रीतिपूर्वक सल्लेखना की आराधना करने वाले मुनि, व्रती श्रावक, अव्रती श्रावक तथा तिर्यंच भी सल्लेखना की साधना करते हैं। किन्तु सिद्धान्तः तो तत्वार्थराजवार्तिक का यह कथन सर्वथा ध्येय है।- “सप्तशीलव्रतः कदाचित् कस्यचित् गृहिणः सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति ।"26 अर्थात् सात शीलव्रतों का धारण करने वाला कभी कोई एकाध गृहस्थ के ही सल्लेखना की अभिमुखता होती है, सबके नहीं। अतः मुख्यता साधुओं के ही समझना चाहिए।
सल्लेखना के योग्य स्थान एवं समय
पण्डितप्रवर आशाधर के अनुसार जन्मकल्याणक स्थल, जिनमन्दिर, तीर्थस्थान और निर्यापकाचार्य के सान्निध्य वाला स्थल सल्लेखना के उपयुक्त स्थान हैं।
भगवती आराधना में सल्लेखना के उपयुक्त समय का कथन करते हुए कहा गया है
"एवं वासारते फासेदूण विविधं तवोकम्म।
संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारम्मि।।"28 अर्थात् वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप करके सुख विहार वाले हेमन्त ऋतु में सल्लेखना का आश्रय लेता है। हेमन्त ऋतु में अनशन आदि करने पर महान् परिश्रम नहीं होता, सुख पूर्वक भक्तप्रत्याख्यान हो जाता है। इसी कारण इस हेमन्त ऋतु को सुखविहार कहा गया है।