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अनेकान्त 60/1-2
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समझना चाहिये। चूंकि ज्ञानलब्धि ज्ञानोपयोग में अर्थात् पदार्थज्ञान में कारण है इसलिये पदार्थज्ञानरूप फल की अपेक्षा ज्ञानलब्धि को प्रमाण कहा गया है और ज्ञानोपयोग अर्थात् पदार्थज्ञान होने पर ज्ञाता जाने हुए पदार्थ को इष्ट समझ कर ग्रहण करता है, अनिष्ट समझ कर छोड़ता है तथा इष्टानिष्ट कल्पना के अभाव में जाने हुए पदार्थ को न ग्रहण करता है और न छोड़ता है बल्कि उसके प्रति वह माध्यस्थरूप वृत्ति धारण कर लेता है इसलिये ग्रहण, त्याग और माध्यस्थ वृत्तिरूप फल की अपेक्षा ज्ञानोपयोग को भी प्रमाण माना गया है। जैनधर्म का दर्शन मुख्यरूप से इस ज्ञानोपयोग को ही प्रमाण मानता है।
2. प्रमाण के भेद स्वार्थ और पदार्थ
मति आदि ज्ञानावरण कर्मों के अभाव से होने वाला आत्मा के ज्ञानगुण का मति आदि ज्ञानलब्धिरूप विकास स्व अर्थात् अपने आधारभूत ज्ञाता के ही पदार्थज्ञान रूप ज्ञानोपयोग में कारण है इसी प्रकार पदार्थज्ञान रूप ज्ञानोपयोग भी स्व अर्थात् अपने आधारभूत ज्ञाता की ही ज्ञातपदार्थ में ग्रहण, त्याग और माध्यस्थभावरूप प्रवृत्ति में कारण होता है इसलिये ज्ञानलब्धि और ज्ञानोपयोगरूप दोनों प्रकार के ज्ञानों को स्वार्थप्रमाण कहा गया है लेकिन स्वार्थप्रमाण के अतिरिक्त नाम का भी प्रमाण जैनधर्म में स्वीकार किया गया है वह श्रोता को होने वाले शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञान में कारणभूत वक्ता के मुख से निकले हुए वचनों के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता है अर्थात् वक्ता के मुख से निकले हुए वचन ही श्रोता के शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञान में कारण होने की वजह से पदार्थप्रमाण कहे जाते हैं। चूंकि वचन प्रमाणभूत श्रुतज्ञान में कारण है इसलिये उपचार से वचन को भी प्रमाण मान लिया गया है और चूंकि शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञान का आधार श्रोता होता है और उसमें कारणभूत वचनों का उच्चारण का आधारभूत वक्ता से भिन्न श्राता के ज्ञान में कारण होने की वजह से वचन को परार्थप्रमाण कहते