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अनेकान्त 60/1-2 ___ हेतुर्ज्ञानात्मकः; पराधिगमहेतुर्वचनात्मकः” --(राजवर्तिक) 1-6। “ज्ञानात्मक स्वार्थ
वचनात्मकं परार्थम्" (सर्वार्थसिद्धि) 1-6 । 15. “आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः" परीक्षा. 3-99
इसमें आदि शब्द से अंगुलि, लेख आदि को ही ग्रहण किया गया है तथा आगम
शब्द से श्रुतज्ञान अर्थ लिया गया है। 16. “सुतिङन्तं पदम्" 1/4/14-पाणिनि कृत अष्टाध्यायी 17. "पदानां परस्परसापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम्"। -अष्टसहस्त्री पृष्ठ 285
पंक्ति 1 18. “वाक्योच्चयो महावाक्यम्” (साहित्यदर्पण परिच्छेद 2 श्लोक 1 का चरण 3) यहां
पर “वाक्योच्चयः" पद का विशेषण “योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः" इस श्लोक की टीका में दिया गया है तब महावाक्य का लक्षण वाक्य इस प्रकार हो जाता है“परस्परसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षसमुदायो महावाक्यम्"। गोम्मटसार जीवकाँड में श्रुतज्ञान के जो 20 भेद गिनाये हैं इनमें अक्षर, पद और संघात अर्थात् वाक्य के बाद जो भेद गिनाये गये है उन सब को महावाक्य में ही अन्तर्भूत समझना चाहिये। कारण कि हमने मूल मे स्पष्ट किया है कि वाक्यों के
समूह की तरह महावाक्यों के समूह को भी महावाक्य ही कहते हैं। 19. (i, ii). "...........प्रमाणमनेकधर्मधर्मिस्वभावं सकलमादिशति".........“नयोधर्ममात्रं
वा विकलमादिशति"। (तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृष्ठ 118 पंक्ति 10, 11 “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र की व्याख्या) समुदाय-विषय प्रमाणमवयवविषया नया इति
“सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति" -तत्वार्थराज. 1-6 20. “अत्थादो अत्यंतरमुवलंभंतं भणंति सुदणाणं ।" - जीवकॉड, गाथा 314 21. “अभिणिवोहिय पुव्वं णियमेणि ह सद्दनं पहुमं" जीवकांड, गाथा 314 (उत्तरार्ध) 22. मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्” इस सूत्र में अनुमान ज्ञान को
ही अभिनिबोध संज्ञा दी गई है। 23. तत्वार्थसूत्र और गोम्मटसार जीवकांड में जो श्रुतज्ञान के भेद बदलाये गये हैं उनसे
यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है।
"श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम्" त० अ० 1 सूत्र 20 • “पज्जायक्खरपद संघादंपडिवत्तियाणिजोगं च। दुगवारपाहुडं चय पाहुडयं वत्थु पुव्वं च।।316 ।।" - गोम्मटसार जीवकांड