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संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में वर्णित तीर्थंकर पार्श्वनाथ चरित
- डॉ. हुकम चंद जैन तीर्थकर साहित्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में लिखे जाते रहे हैं। 24 तीर्थंकरों के चरित साहित्य इन तीनों भाषाओं में प्रमुख रूप से मिलते हैं। न केवल इन भाषाओं में बल्कि अन्य भाषाओं में भी मिलते रहे हैं। 24 तीर्थंकरों में से केवल 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के बारे में वर्णित पर ही शोध पत्र तैयार किया जा रहा है। तीर्थंकर के चरित वर्णन के पूर्व तीर्थकर का अर्थ जान लेना आवश्यक है।
संसार सागर को स्वयं पार करने वाले तथा दूसरों को भी पार करवाने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं। रत्नत्रयात्मक मोक्ष मार्ग को प्ररूपित करते हैं, वह तीर्थंकर है। जो समस्त लोगों का अद्वितीय नाथ है वह तीर्थकर हैं। जैन लक्षणावली में तीर्थकर के स्वरूप के बारे में कहा गया है जो क्रोध आदि कषायों के उच्छेदक केवलज्ञान से सम्पन्न संसार समुद्र के पारंगत उत्तम पंचगति को प्राप्त एवं सिद्धि पथ के उपदेशक हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थंकरों के स्वरूप को जानने के बाद भगवान पार्श्वनाथ के चरित का वर्णन किया जा रहा है। संस्कृत, प्राकृत,
अपभ्रंश भाषा साहित्य में प्रथम शताब्दी से आज तक तीर्थकर चरित लिखे जाते रहे हैं। संस्कृत भाषा में लिखा जाने वाला वादिराज का पार्श्वनाथ चरित है।
पार्श्वनाथ चरित - महाकवि वादिराज ने संस्कृत भाषा में 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ चरित लिखा है। यह ग्रंथ 11वीं शताब्दी में लिखा गया था। इसमें 12 सर्ग हैं। संस्कृत भाषा साहित्य में वर्णित यह काव्य मरुभूति एवं कमठ के जन्म-जन्मान्तर के बदले की भावना दर्शायी गई है। कमठ बार-बार मरुभूति से बदला लेता है और अंत में दुर्गति को प्राप्त करता है। इस काव्य के पूर्व जिनसेन ने नवीं शताब्दी में