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अनेकान्त 60/1-2
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में नहीं बन सकती है। इसलिये ये चारों ज्ञान प्रमाण रूप ही हैं। केवल श्रुतज्ञान में ही पूर्वोक्त प्रकार से प्रमाण और नयका भेद हो सकता है। सर्वार्थसिद्धिग्रंथ में “प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र की व्याख्या करते समय लिखी गयी___ “प्रमाणंद्विविधं स्वार्थं परार्थं च, तत्र स्वार्थप्रमाणं श्रुतवय॑म्, श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च। ज्ञानात्म स्वार्थवचनात्मकं परार्थम् तद्विकल्पा नयाः" इन पंक्तियों का यही अभिप्राय है।
सन्दर्भ
1. "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बंधः" । सू. 2 2. "प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः" आद्यो ज्ञानदर्शनावरण............." सूत्र 3-4।। 3. "मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम्"।।6।। (तत्वार्थ सूत्र 8 अभ्यास) 4. 5 “लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्" अ. 2 सूत्र 18 (तत्वार्थ सूत्र) यहां पर ज्ञान को ही
भाव नाम दिया गया है और उसे इन्द्रिय मान कर उसके लब्धि और उपयोग दो भेद मान लिये गये हैं। यद्यपि यह सूत्र सिर्फ इन्द्रियों से होने वाले मतिज्ञान के बारे में लब्धि और उपयोग की प्रक्रिया को बतलाया है परन्तु यह लब्धि और
उपयोग की प्रक्रिया पांचों ज्ञानों समान समझना चाहिये। 6. "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" तत्वार्थसूत्र अ. 1 सू. 14 7. “मतिः स्मृति सज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्" -तत्वार्थसूत्र अ. 1 सू. 13
यहां पर मति शब्द से स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष आदि 6 भेदों का तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान,
तर्क और अनुमान का ग्रहण करना चाहिये। 8. "श्रुतं मतिपूर्वम्............"।
-तत्वार्थसूत्र अ. 1 सू. 10 9. यहां पर ‘मति' शब्द से शब्दश्रवण अर्थात् कर्णोन्द्रिय-प्रत्यक्ष को ही ग्रहण किया गया
10. "श्रुतमनिन्द्रियस्य"।
-तत्वार्थसूत्र अ. 2 सू. 21 11. ".............सद्दजं पहुमं"।
-गोम्मट. जीवकांड गाथा 314 12. “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञान प्रमाणम्'।
___-परीक्षा 1-1 13. “प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च"।
-सर्वार्थसिद्धि 1-6 14 (i, ii). "अधिगम हेतुद्विविधः स्वाधिगमहेतु. पराधिगम-हेतुश्च, स्वाधिगम