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प्राप्त कराने वाला कहा गया है। 34
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनधर्म में सल्लेखना साधक की जीवन भर की साधना का निकष है । यह तप, श्रुत, व्रत आदि का फल है । इसका परिणाम सुगति की प्राप्ति है । क्षु. श्री जिनेन्द्र वर्णी के शब्दों में “सल्लेखना वास्तव में शान्ति के उपासक की आदर्श मृत्यु है । एक सच्चे वीर का महान् पराक्रम है। इससे पहले कि शरीर जवाब दे, वह स्वयं समतापूर्वक उसे जवाब दे देता है और अपनी शान्ति की रक्षा में सावधान रहता हुआ उसी में विलीन हो जाता है ।"35 सल्लेखना जीवन के परम सत्य मरण का हँसते-हँसते वरण है । मृत्यु से निर्भयता का कारण है। पं. सूरजचन्द जी समाधिमरण में कहते हैं
" मृत्युराज उपकारी जिय को, तन से तोहि छुड़ावै । नातर या तन बन्दीगृह में,
पर्यो पर्यो विललावै । ।"
हम सबको समाधिमरण प्राप्त हो, इसी पवित्र भावना के साथ
विराम |
सन्दर्भ :
1. सर्वार्थसिद्धि, 7/22
2. व्रतोद्योतनश्रावकाचार, 124
3. वसुनन्दिश्रावकाचार, 211-212
4. सल्लेहणा यदुविहा अब्भंतरिया या बाहिरा चेव ।
अन्तरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे । ।
अनेकान्त 60 / 1-2
5. पञ्चास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति
6.
भगवती आराधना, 70-72
7. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 122 123
8.
लाटी सहिता, 232-233
9. पुरुषार्थानुशासन, 99-100
भगवती आराधना, 208