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पचास वर्ष पूर्व
नयों का विश्लेषण
- पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य
1. प्रमाण-निर्णय ___“प्रमाणनयैरधिगमः” यह तत्वार्थसूत्र के पहिले अध्याय का छठा सूत्र है। इसमें पदार्थो के जानने के साधनों का प्रमाण और नयके रूप में उल्लेख किया गया है। आगे चल कर इसी अध्याय में “मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्” (सू. 9) और “तत्प्रमाणे” (सूत्र 10) इन सूत्रों द्वारा ज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान ये पांच भेद ज्ञान के हैं। इनका ही प्रमाण रूप से उल्लेख किया गया है।
जैनधर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य, पशु आदि जगत् के सब प्राणियों में वाह्य शरीर के साथ संबद्ध परिणामी नित्य एवं अदृश्य आत्मनामा वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है और यह आत्मा प्रत्येक प्राणी में अलग-अलग है, इसके सद्भाव से ही प्राणियों के शरीर में भिन्न-भिन्न तरह के विशिष्ट व्यापार होते रहते हैं और इसके शरीर से अलग होते ही वे सब व्यापार बंद हो जाते हैं।
इस आत्मा में एक ऐसी शक्ति विशेष स्वभावतः जैन-धर्म मानता है, जिसके द्वारा प्राणियों को जगत के पदार्थो का ज्ञान हुआ करता है। इस शक्ति विशेष को उसने आत्मा का 'ज्ञानगुण' नाम दिया है और इसको भी आत्मा में अलग-अलग माना है। साथ ही, इस ज्ञानगुण को ढकने वाली अर्थात् प्राणियों को पदार्थ ज्ञान न होने देने वाली वस्तुविशेष का संबन्ध भी प्रत्येक आत्मा के साथ उसने कबूल किया है और इसे ज्ञानावरणकर्म' नाम दिया है इस कर्म के भी पांचो ज्ञानों के प्रतिपक्षी पांच भेद उसने कबूल किये हैं जिनके नाम ये हैं-मतिज्ञानावरण,