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अनेकान्त 60/1-2
जाने-अनजाने साथ ले आते थे। फलस्वरूप पूर्व परम्परा के संस्कार उत्तरवर्ती परम्परा में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उसके मूलस्रोत का ज्ञान प्राप्त करना ही अपने आप में एक समस्या है।
आचार्य हरिभद्र प्रारम्भ में वैदिक संस्कृति से संबद्ध थे, किन्तु बाद में अपनी अटपटी प्रतिज्ञा के कारण श्वेताम्बर जैन परम्परा में दीक्षित हो गये। अब सम्प्रदाय परिवर्तन के पश्चात् उनके द्वारा लिखित साहित्य में वैदिक परम्परा के बीज खोजे जा सकते हैं। इसी प्रकार महाकवि अर्हद्दास द्वारा लिखित भव्यजनकण्ठाभरण में भी वैदिक तत्त्वों का अनायास समावेश हो गया। आदान-प्रदान के इन बीजों का पता वही लगा सकता है जो दोनों परम्पराओं का गहन अध्येता हो। अन्यथा जन-सामान्य तो गुरुभक्ति और श्रद्धा के कारण उसे अपने धर्मविशेष का अङ्ग मानकर चलता है। ___ अच्छी बातों को ग्रहण करने में कभी कोई संकोच न तो किया गया है और न ही किया जाना चाहिये। वैदिक संस्कृति में अहिंसा का पर्याप्त महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, किन्तु उसका जैसा सूक्ष्म विवेचन एवं परिपाक जैन संस्कृति में हुआ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। परवर्ती वैदिक विधि-विधानों में उसका पर्याप्त प्रभाव दिखलाई देता है। जहाँ अश्वमेध
और गोमेध आदि यज्ञों का वैदिक परम्परा में बहुप्रचलन था, अब वह प्रायः चर्चा में रह गया है। दशाश्वमेध घाट एक ही है। एकादशाश्वमेध घाट तो अभी तक नहीं बन सका। यह अहिंसा के प्रति हमारी जागरूकता ही कही जायेगी। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने तो अश्व का अर्थ इन्द्रियों से जोड़कर एक नई क्रान्ति का बिगुल फूंककर अहिंसा की प्रतिष्ठा को मजबूती प्रदान की है और कुछ हद तक वे जैनों की अहिंसा के करीब आ रहे हैं। गो का अर्थ वाणी करना और वाणी को विश्राम देना अर्थात् मौन धारण करना जैसे गोमेध यज्ञ के अर्थ निश्चय ही स्वागतेय हैं।