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अनेकान्त 60/1-2
65 उसके लिए सरल बन जाता है। उदाहरणार्थ एक गाथा यहाँ उद्धृत करता हूँ
यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचन्ते विषया सुलभा अपि ।।37 संस्कृत की इस गाथा नं. 37 का भावपूर्ण सौष्ठव देखें। संवित्ति अर्थात् स्व. पर के भेद विज्ञान से आत्मा जैसे जैसे विशुद्ध और प्राञ्जल बनती हुई आत्म-विकास करती है, वैसे वैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पञ्चेन्द्रिय के विषय उसे अरुचिकर और निःसार लगने लगते हैं। उन विषयों के प्रति उदासीन या अनासक्त भाव जाग्रत होने लगता है। जैसे सूर्य प्रकाश के सामने दीपक का प्रकाश मंद दिखता हुआ तिरोहित सा हो जाता है। उसी प्रकार निजानन्द चैतन्य स्वरूप का भान होने पर उस विराट आत्म-सुख के समक्ष, विषय भोग के सांसारिक सुख क्रान्तिहीन
और बोने लगते हैं। आत्म साधक के लिए वे सुख आकर्षित नहीं कर पाते।
जिनेन्द्र भगवान् ने निराकुलता को सच्चा सुख कहा है। संसार-सुख देह भोग का सुखाभास है। जैसे इन्द्र धनुष की सुन्दरता क्षणिक और काल्पनिक है वस्तुतः वह दृष्टिभ्रम का एक उदाहरण है वैसे ही इन्द्रिय सुख-आकुलता को पैदा करने वाला वैसा ही सुख है जैसे शहद लिपटी तलवार की धार को जीभ से चाँटने का सुख होता है। उस क्षणिक सुख में वेदना का पहाड़ छिपा होता है। विषय काम-भोग के सुख वस्तुतः सुख की कल्पना के पर्दे के पीछे खड़ा दुःख का स्तूप है। ___ जिसे अध्यात्म रस की मिठास मिलने लगती है वह पदार्थों के सम्मोहन से ऊपर उठ जाता है। वैराग्य-भाव से निज निधि की तलाश में वह आत्म अन्वेषण करता हुआ इष्ट उपदेश की ओर उन्मुख होता है जो उसका कल्याणकारी होता है। दूसरे शब्दों में जैसे-जैसे इन्द्रिय भोग से रुचि घटती जाती है। आत्म प्रतीति उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। 'आत्म-संवित्ति' का वैभव कितना विराट और अनन्त है, एक गाथा में कह देना यह पूज्यपाद स्वामी की विलक्षण शुद्धात्मानुभूति ही थी।