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अनेकान्त 60/1-2
साधुओं और आचार्यों की संगतियाँ समायोजित नहीं हुई पिछले 50 वर्षों में। जैसा इतिहास में पढ़ा था कि नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में श्रमण साधुओं की संगतियाँ हुआ करती थीं वे आज दुर्लभ हैं। आज हर संघ के साधुओं की अपनी-अपनी चर्या होती जा रही है और इकीसवीं सदी का प्रभाव उनमें घुसपैठ कर रहा है। चाहे वह मोबाइल का प्रयोग हो या विज्ञापन की खर्चीली विधियॉ, वातानुकूलित कक्षों में रहना हो या फ्लश का उपयोग। अब तो साधु की साधना का एक ही मापदण्ड रह गया है कि वह प्रवचन कला में कितना प्रवीण या निपुण है और श्रोताओं की भीड़ जुटाने में कितना सक्षम हैं? मुनि विशुद्ध सागर इसके अपवाद हैं। लोग इन्हें लघु आचार्य विद्यासागर जी तक कहने लगे हैं क्योंकि श्री विशुद्धसागर जी की मुनिचर्या आगमानुकूल निर्दोष चर्चा है। शिथिलाचार आपकी चर्चा में फटक नहीं पाता और आचार्यश्री विद्यासागर जी के लघु-संस्करण हैं और समत्व और वीतरागता के प्राञ्जल-नक्षत्र हैं। जैन समाज आज बीस, तेरा में विभक्त हो रही है, निश्चय और व्यवहार पक्ष के कारण विभाजित है। उपजाति के आधार पर अपनी पहिचान बनाने में ‘गोलापूर्व' जैसे सम्मेलन में शक्ति का विभाजन हो रहा है। उन सभी संकीर्णताओं से अलग खड़े मुनि विशुद्ध सागर जैन समाज के एकीकरण के लिए अपने अध्यात्म को समर्पित भाव से उपयोग करके आत्मसाधना में निरत हैं।
इष्टोपदेश भाष्य की पाण्डुलिपि पढ़कर मुझे इस प्रज्ञा-पुरुष की प्रतिभा का आभास हुआ और सिर श्रद्धा से झुक गया। इष्टोपदेश को पढ़कर ऐसा लगता है कि पूज्यपाद स्वामी ने आ० कुन्दकुन्द देव के समयसार, प्रवचनसार आदि अध्यात्म ग्रन्थों को आत्मसात् करके ही इसे सृजित किया है। आत्म रसिक स्वाध्यार्थियों को आत्म चिन्तन के सरोवर में निमग्न होने के लिए जैसे 'गागर में सागर' भरने की उक्ति चरितार्थ कर दी हो। यह सत्य है कि जब कोई महान आत्मसाधक साधना की
कर दी हो। यह सत्य है कि जब कोई महान आत्मसाधक साधना की
सम्वेदना के बहुत निकट पहुँच जाती है। अध्यात्म का कठिन रास्ता,