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अनेकान्त 60/1-2
105(254) एवं 108 (258) में आपका मुक्तकण्ठ से यशोगान किया गया है। आपको अद्वितीय औषधि-ऋद्धि के धारक बताया गया है। कहते हैं आपने ऐसा रसायन खोजा था, जिसे पैरो के तलुवों में लेपन कर विदेह क्षेत्र जाकर, वहाँ स्थित जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने से आपका शरीर पवित्र हो गया था। जिनके चरण धोए जल-स्पर्श से एक बार लोहा भी सोना बन गया था। आप समस्त शास्त्र विषयों में पारंगत थे और कामदेव को जीतने के कारण योगियों ने आपको 'जिनेन्द्र बुद्धि' नाम से पकारा। आप महान वैयाकरण (जैनेन्द्र व्याकरण के स्वयिता) थे। श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा- “जिनका वाङ्मय शब्दशास्त्र रूपी व्याकरणतीर्थ, विद्वज्जनों के वचनमल को नष्ट करने वाला है, वे देवनन्दी कवियों के तीर्थकर हैं।" “विदुषां वाङ्मल- ध्वंसि" गुणसंज्ञा से आपको विभूषित किया गया था। ___ जहाँ “सर्वार्थसिद्धि" आपकी सिद्धान्त में परम निपुणता को, 'छन्दःशास्त्र' बुद्धि की सूक्ष्मता को व रचना चातुर्य को तथा “समाधि शतक" स्थित प्रज्ञता को प्रगट करता है।, वहाँ “इष्टोपदेश" आत्म-स्वरूप सम्बोधन रूप अध्यात्म की गवेषणात्मक प्रस्तुति है। पूज्य मुनि श्री विशुद्धसागर जी एक अध्यात्म चेता जैन संत हैं, विषयों से विरक्त परम तपस्वी हैं, जिन्होंने इसका भाष्य लिखा और द्रव्यानुयोग आगम ग्रन्थों के सन्दर्भो से युक्त यह 'इष्टोपदेश-भाष्य' जो आपके चिन्तन और अध्यात्म की अतल गहराई में उतरकर अनुभूति का शब्दावतार है। मुनि श्री का ही चिन्तन आपके प्रवचनों में मुखर होता है। समता भाव और आडम्बरहीन आपकी सालभर चलने वाली दिनचर्या है। जो भी बोलते हैं- अनेकान्त की तुला पर तौलकर बोलते हैं। निश्चय और व्यवहार का समरसी समन्वय आपकी पीयूष वाणी से भरता है।
यह मुनि श्री की वाणी का अद्भुत चमत्कार है कि प्रवचन के समय-अध्यात्म रसिक श्रोता भाव विभोर हो सुनता है और एकदम