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अनेकान्त 60/1-2
प्रत्येक तीर्थकर के काल में दस दस अंतःकृत (उपसर्ग) केवली होते हैं । भगवान महावीर के शासनकाल के दस अंतःकृत केवलियों में से पाँचवें अंतःकृत केवली का नाम 'सुदर्शन' था । सुदर्शन पूर्व भव में सेठजी के यहाॅ गोप नामक ग्वाला थे । ये एक समय गंगा नदी में फंस गए और महामंत्र का स्मरण करते-करते प्राण निकल गए। उस मंत्र के प्रभाव से उसी सेठजी के घर में पुत्र उत्पन्न हुए। अपने जीवन में मित्र - पत्नी, राजपत्नी (रानी) वेश्या आदि अनेकों स्त्रियों की कुदृष्टि से बचते हुए उपसर्ग सहते रहे और महामंत्र के प्रभाव से बचते रहे । अन्त में संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर आत्म कल्याण कराने वाली दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर श्मशान में ध्यानारूढ़ हो गए। वहाँ भी व्यंतरी के उपसर्ग को सहना पड़ा। उपसर्ग विजयी मुनिराज ने घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया तथा व्यंतरी ने भी उपदेश ग्रहणकर सम्यक्त्व भाव धारण किया। अपनी आयु को पूर्ण कर उपसर्ग-विजयी केवली भगवान सुदर्शन ने मुक्ति - रमा का वरण किया। 27 उन केवली भगवान सुदर्शन की निधीधिका (चरणक्षत्री) मगधाधिपति सम्राट मौर्य की राजधानी पटना के गुलजार बाग में बनी हुई थी । सम्राट मौर्य संसारी बैर भाव को भुलाकर मोक्षपद में स्थित कराने वाले महामंत्र के आराधक थे और सुदर्शन केवली के उज्ज्वल चारित्र, उपसर्ग और महामंत्र के प्रभाव से भी अत्यंत प्रभावित थे। संभवतः उन्हीं की स्मृति स्वरूप केवली सुदर्शन के नाम पर स्वर्णसिक्ता और पलासिनी नदी पर बांध बांधकर बनने वाली झील का नाम "सुदर्शन झील " रखा गया जो सम्राट् के पूर्व से पश्चिम तक के एक सूत्र शासन का प्रतीक थी ।
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सम्राट् ने अनेक स्थलों पर धर्मायतनों का निर्माण कराकर सौराष्ट्र मार्ग से होते हुए महाराष्ट्र में प्रवेश किया तथा महाराष्ट्र कोंकण, कर्नाटक, तमिलदेश पर्यन्त समस्त दक्षिण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। लगभग 24 वर्षों तक शासन करने के उपरांत अपने गुरु पंचम अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी से बारह वर्ष का अकाल जानकर संसार शरीर भोग से वैराग्य हो गया । अपने पुत्र बिन्दुसागर को