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अहिंसा और अपरिग्रह की प्रासंगिकता
___ - नीरज जैन मानव-धर्म की परिभाषा यदि एक ही शब्द में करने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिये अहिंसा के अतिरिक्त शायद कोई दूसरा शब्द दुनिया के किसी शब्दकोश में मिलने वाला नहीं है। अहिंसा संसार के सभी धर्मों का मूल तत्व है। अहिंसा किसी मन्दिर में, या किसी तीर्थ-स्थान पर जाकर, सुबह-शाम सम्पन्न किया जाने वाला कोई अनुष्ठान नहीं है। वह आठों याम चरितार्थ किया जाने वाला एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। अहिंसा में ऐसी सामर्थ्य है कि वह घृणा-विद्वेष और मान की चट्टान पर प्रेम और सहिष्णुता के अंकुर उपजा सकती है। अहिंसा में यह चमत्कारिक शक्ति है, जो विषमता से दहकते चित्त में समता और शान्ति के फूल खिला सकती है।
अहिंसा से व्यक्ति का जीवन निष्पाप बनता है और प्राणी-मात्र को अभय का आश्वासन मिलता है। इस व्यवस्था से प्रकृति का संतुलन बनाये रखने में सहायता मिलती है और पर्यावरण को संरक्षण मिलता है। इसीलिये तो संतों ने मनुष्य के संयत आचरण को जीव-मात्र के लिये कल्याणकारी कहा है। __इस विधान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है। जीवन से पलायन भी अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। अहिंसा जीवन को व्यावहारिक बनाती है तथा धर्म और कर्तव्य के बीच संतुलन बनाते हुए अपने लिये और सबके लिये हितकारी चिन्तन को जन्म देती है। अहिंसा मनुष्य के जीवन में मानवता की प्रतिष्ठा का एक मात्र और आसान उपाय है।
अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं,