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अनेकान्त 60/1-2
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समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। णाणेण उ मुणी होइ तवेण होइ तावसी।।
अर्थात् केवल मुण्डने से श्रमण, ओंकार के जप से ब्राह्मण, अरण्य से मुनि और कुश-चीवर धारण से तपस्वी नहीं होता प्रत्युत समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि तथा तपाराधना से तपस्वी होता है।
द्विज लोगों की शुद्धि श्रुति, स्मृति, पुराण, सदाचार, मन्त्र और क्रियाओं के आश्रित है तथा देवताओं के चिह्न धारण करने और काम का नाश करने से भी होती है। जो श्रुति, स्मृति आदि के द्वारा की हुई अत्यन्त विशुद्ध वृत्ति को धारण करते है उन्हें शुक्ल वर्ग अर्थात् पुण्यवानों के समूह में समझना चाहिए। जो इनसे शेष बचते हैं उन्हें शुद्धि से बाहर समझना चाहिए अर्थात् वे महा अशुद्ध हैं। उनकी अशुद्धि न्याय अन्यायरूप प्रवृत्ति से जाननी चाहिए। शुद्धि दया से कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियों का मारना अन्याय है। इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्ति को धारण करने वाले
जैन लोग ही सब वर्गों में उत्तम हैं। वे ही द्विज हैं। ये ब्राह्मण आदि वर्णों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम है और जगत्पूज्य हैं।
किसी एक दिन सभा के बीच में सिंहासन पर बैठे हुए भरत एकत्रित हुए राजाओं के प्रति क्षात्रधर्म का उपदेश देते हुए कहने लगे कि हे समस्त क्षत्रियों में श्रेष्ठ महात्माओं! आप लोगों को आदि ब्रह्मा भगवान वृषभदेव ने दुःखी प्रजा की रक्षा करने में नियुक्त किया है। दुःखी प्रजा की रक्षा करने में नियुक्त हुए आप लोगों का धर्म पांच प्रकार का कहा है। उसे सुनकर तुम लोग शास्त्र के अनुसार प्रजा का हित करने में प्रवृत्त होओ। वह तुम्हारा कुल का पालन करना, बुद्धि का पालन करना, अपनी रक्षा करना, प्रजा की रक्षा करना, और समंजसपना इस प्रकार पांच भेद वाला कहा गया है। उनमें से अपने कुलाम्नाय की