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अनेकान्त 60/1-2
रूपान्तरण लौकिक संस्कृत में हुआ और देश भर में लौकिक संस्कृत का भौगोलिक प्रसार होता गया।23 इससे मिलता-जुलता विचार डा. माधव मुरलीधर देशपांडे ने प्रस्तुत किया है- "ऋग्वेदीय ऋचाओं की रचना करने वाले ऋषि अपने दैनिक व्यवहार में प्राकृत सदृश भाषा का व्यवहार करते होंगे।" प्राकृत की कुछ विशेषताएं ऋग्वेद के कुल शब्दों में, ध्वनियों में, प्रकृति-प्रत्ययों में और वाक्य रचनाओं में मिलती है।24 __ भाषा निरन्तर विकास करती जाती है यह सतत एवं अदृश्य प्रक्रिया है, जो हमेशा क्रियाशील रहती है दूसरी भाषा का प्रभाव एवं शब्द अन्यान्यों भाषा के साथ संयुक्त होते जाते हैं, भाषा टूटती है और फिर एक नवीन भाषा का संस्कार होता है। यह प्रक्रिया सरलता से कठिनता की ओर चलती है। ऋग्वेद प्राचीन होने के साथ उत्कृष्ट कोटि का साहित्य भी है, जो किसी समय विशेष की उत्पति नहीं होकर एक निरन्तर चलने वाली भाषा-विकास की परिणति है। भारतीय भाषा विज्ञान के मनीषी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी भाषा विकास के संदर्भ में लिखते हैं कि- जिन ऋषियों ने वेद मंत्रों की रचना की, उन्होंने उसी समय वैदिक भाषा की भी रचना कर डाली थी। वह भाषा एक सुदीर्घ विकास-परम्परा का परिणाम है। इस संदर्भ में आचार्य वाजपेयी के निम्नलिखित तर्क विचारणीय हैं
वेदों की भाषा का प्राकृत रूप क्या था, यह जानने के लिए निराधार कल्पना की जरूरत नहीं। वेदों की जो भाषा है उससे मिलती-जुलती ही वह प्राकृत भाषा होगी, जिसे हम भारतीय मूल भाषा कहते हैं। उस मूल भाषा को पहली प्राकृत भाषा समझिए। प्राकृत भाषा का मतलब है- जनभाषा। जब वेदों की रचना हुई, उससे पहले ही भाषा का वैसा पूर्ण विकास हो चुका होगा। तभी तो वेद जैसे साहित्य को वह वहन कर सकी। भाषा के इस विकास में कितना समय लगा होगा। फिर वेद जैसा उत्कृष्ट साहित्य तो देखिए। क्या उस मूल भाषा का या "पहली प्राकृत' की पहली रचना ही वेद हैं? सम्भव नहीं।