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अनेकान्त 60/1-2
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पढ़े सुणै अर सरदहैं, मन बच क्रम जो याहि। निति गहैं अति सुख लहै, दुख न व्यापै ताहि ।40।। इहि विनती 'मनरांम' की तुम गुण सकल निधान। संत सहज अवगुन त , करै सुगुन परवान। (इति श्री गुरु अक्षरमाला सम्पूर्ण) खेह, थोथौ, टोटौ, ठगोरी आदि ब्रजभाषा शब्दावली एवं 'संपदा' चंचलता, कामिनी, कनक आदि तत्सम शब्दों के प्रयोग के कारण, राजस्थानी भाषा के शब्दों के पूर्ण परिहार के कारण कविवर मनराम पूर्वी राजस्थान के निवासी प्रमाणित होते हैं। इनके कुछ फुटकर पद भी प्राप्त हैं। 'मनराम विलास' के नाम से कवि के रचना संग्रह का उल्लेख भी मिलता है।
110-A, रणजीतनगर
भरतपुर
921001
यथा राजा तथा प्रजा धर्मशीले महीपाले याति तच्छीलतां प्रजाः। अताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजाः।।
- आदिपुराण, 41/87 यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा धर्मात्मा नहीं होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा नहीं होता है। यह नियम है कि जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है।