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श्रमण-संस्कृति : इतिहास और पुरातत्व के संदर्भ में
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का अदृश्य होना स्वाभाविक है। यह विशेषता तो किया। इसीलिए उनकी रानी और देश के प्रथम चक्रवर्ती तीर्थकरों की स्वय-सिद्धि है ही कि उनके सान्निध्य में की माता विद्याधर वंश की थी। इससे यह प्रमाणित व्याघ्र, गज, मग ग्रादि नित्य विरोधी पशु भी मैत्री पूर्वक होता है कि इक्ष्वाक और विद्याधर प्राग्-पाय-काल में यहाँ बैठते है। मग की अवस्थिति टीक वैसे ही है, जैसे रहते थे और उनमें मंत्री-मम्बन्ध था, जो उक्त विवाहवर्तमान युग में शान्तिनाथ प्रभु की मूर्तियों में हमा प्रसग से जाना जाता है। करती है। मृग सोलहवें तीर्थ वर का लाछन भी है। एक और प्रागार्य वश पर भी हमें यहां ध्यान देना यह कल्पना इस लिए की जा सकती है कि हडप्पा और चाहिए। हरिवंश के लोग देश के पश्चिम भाग में रहने मोहनजोदडों की खदाइयों में कुछ अन्य मूर्तिया तथा वाले थे। श्रीकृष्ण और भगवान् अरिष्टनेमि दोनो हरिमुद्राएं उपलब्ध हुई है, जिनसे जैन तीर्थकर और जैन मस्कृति वंश के थे । इस वंश के राजा अहिंसा धर्म के रक्षक होने का आभास मिलता है, ऐसा विद्वानो का अभिमत है। के रूप मे सुविख्यात है। इतिहास के इस सिंहावलोकन त्रिमुख मूर्ति के विषय मे उपर्युक्त कल्पना एकाएक स यह स्पष्ट हा जाता है कि प्राया क अ
से यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्यों के आने से पहले भी भले ही कुछ दूर की लगे, पर उस सम्बन्ध से शिव की अहिंसा-धर्म इस देश में व्यापक था और वह राजकल्पना करने में भी विद्वान पूरा निर्वाह नहीं कर पा रहे परिवारों के द्वारा समादत था। सम्भव तो यह भी है है। उनका कहना है कि तीन नेत्रो के स्थान पर तीन कि वह देश के बहुत सारे भागों में राजधर्म भी था। मुख हो सकते है और त्रिशूल के द्योतक, मूर्ति के दिखलाये
प्रागार्य विद्याधर, जो कि प्रागार्य सभ्यता और संस्कृति के दो सोग हो सकते है। सचमच ही यह कल्पना बड़ा ही मूल पुरुष थे, द्रविड लोगो के पूर्वज माने जाते है । यदि लचीली और खीचतान की मी है। कुछ भी हो; त्रिमुख
पुरातत्त्व-गवेषक विद्वानों की यह मान्यता स्वीकार हो मूर्ति से इतना तो निर्विवाद है ही कि आर्यों के आगमन
जाती है तो इस निश्चय पर पहुंच ही जाते हैं कि वह से पूर्व उस प्रदेश से ध्यान और मनित्व का अस्तित्व
अहिंसा-धर्म ही है जो प्राचीन द्रविड संस्कृति और सभ्यता वर्तमान था।
का आधार था। प्रागार्य वंश:
डा० ए० सी० संन, एम० ए०, एल-एल० बी, पोसुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. ए. चक्रवर्ती का कहना है,
१. एच० डी० (हैम्बुर्ग) का भी अभिमत है"-बुद्ध और महा'ऐसा कहा जाता है, भगवान् ऋपभ इक्ष्वाकुवंदा के थे।
वीर के विचार वैदिक संस्कृति से स्वतन्त्र रूप में विकसित अन्य अधिकाश तीर्थङ्कर भी इसी वश के थे। भगवान श्री
हुए है और यह बहुत सम्भव है कि इनमे से बहुत सारे
र महावीर के समकालीन शाक्य मनि गौतम बदध भी इसी विचारों का प्रारम्भ प्राचीन प्रागार्य और प्राग वैदिक युग इक्ष्वाकुवंश के थे। अवतार पूरुष माने जाने वाले राम में हो चुका था। भी इक्ष्वाकुवंश के थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है नवागत संस्कृति और श्रीकृष्ण : कि प्राचीन भारत मे इक्ष्वाकुवंश का एक सम्मानित स्थान इतिहास और अनुसन्धान के क्षेत्र में यह तो निर्विवाद था। बहुत सम्भव है, इक्ष्वाकु लोग प्रागार्य थे; क्योकि निश्चित है ही कि आर्य-संस्कृति लोकपषणा-प्रधान थी। वैदिक संहिताग्री में उन्हें उस देश के प्राचीन लोगों में प्रात्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, अहिंसा, सत्य तथा त्याग जैसी से माना है। यद्यपि भगवान् ऋपभ इक्ष्वाकुवंश के थे मान्यताएं उनमे नहीं थी। विभिन्न देवों की हिमा-प्रधान तथापि एक विद्याधर राज-कन्या में भी उन्होने विवाह यज्ञों से उपामना करना और अपना भौतिकी इष्ट मांगना 8. Kamta Prasad Jain in his paper in the 9. Ancient India (An Advanced History of Voice of Ahinsa-Tirthankar Rishbhadeva
India Part 1 )By Majumdar Ray, Chaudhary Number, Vol. VII N. 3-4 march-April
and K.C. Dutta, P. 20.
10. The Religion of Ahinsa, p.p.37-31. 1957, P.P. 152-6.
11. Elements of Jainism, p.2.