Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 238
________________ जैन न्याय-परिशीलन २३३ तथा पर-पक्ष के निराकरण में व्यस्त थे। उसी समय देती है ? मनित्यवादी कहता था कि वस्तु प्रति समय दक्षिण भारत के क्षितिज पर जैन परम्परा में प्राचार्य नष्ट हो रही है, कोई भी वस्त स्थिर नही है। अन्यथा गद्धपिच्छ के बाद स्वामी समन्तभद्र का उदय हमा। ये जन्म, मरण, विनाश, प्रभाव, परिवर्तन प्रादि नही होना प्रतिभा की मूर्ति और क्षात्र तेज से सम्पन्न थे। सूक्ष्म एवं चाहिए, जो स्पष्ट बतलाते है कि वस्तु नित्य नहीं है, अगाध पाण्डित्य और समन्वयकारिणी प्रज्ञा से वे समन्वित अनित्य है। थे। उन्होने उक्त संघर्षों को देखा और अनुभव किया कि इसी तरह भेदवाद-प्रभेदवाद, अपेक्षावाद-अनपेक्षापरस्पर के प्राग्रहों से वास्तविकता लुप्त हो रही है। दार्श- वाद, हेतुवाद-अहेतुवाद, देववाद-पुरुषार्थवाद प्रादि एकनिकों का हठ भावकान्त, प्रभावकांत, वैतकांत, अद्वैत- एक वाद (पक्ष) को माना जाता और परस्पर में संघर्ष कान्त, अनित्यकान्त, नित्यकान्त, भेदकान्त, अभेदै- किया जाता था। कान्त, हेतुवादकान्त, अहेतुवादैकान्त, अपेक्षावादैकान्त, जैन ताकिक समन्तभद्र ने इन सभी दार्शनिकों के पक्षों अनपेक्षावादकान्त, देवकान्त, पुरुषार्थेकान्त, पुण्यकान्त, का गहराई और निष्पक्षदष्टि से अध्ययन किया तथा पापकान्त आदि ऐकान्तिक मान्यतानों में सीमित है। उनके दृष्टिकोणों को समझ कर स्याद्वादन्याय से उनमें इसकी स्पष्ट झलक समन्तभद्र की 'याप्तमीमासा' में सामंजस्य स्थापित किया । उन्होंने किसी के पक्ष को मिलती है । मिथ्या कह कर तिरस्कृत नहीं किया, क्योंकि वस्तु अनन्त समन्तभद्र ने प्राप्तमीमांसा में दार्शनिकों की इन धर्मा है। प्रतः कोई पक्ष मिथ्या नही है, वह मिथ्या तभी मान्यताओं को दे कर स्याद्वादन्याय से उनका समन्वय होता है, जब वह इतर का तिरस्कार करता है । किया है । भावकान्तवादी अपने पक्ष की उपस्थापना करते हुए कहता था कि सब भाव रूप ही है, प्रभावरूप कोई समन्तभद्र ने वादियों के उक्त पक्ष-यूगलों में स्याद्वादवस्त नहीं है...'सर्व सर्वत्र विद्यते' (सब सब जगह है), न्याय के माध्यम से सप्तभंगी की विशद योजना करके न कोई प्रागभाव रूप है, न प्रध्वंसाभाव रूप है, न उनके आपसी संघर्षों का जहां शमन किया, वहा उन्होंने अन्योन्याभावरूप है और न अत्यन्त भावरूप है। अभाव- तत्वग्राही एवं पक्षाग्रह-शून्य निष्पक्ष दृष्टि भी प्रस्तुत वादी इसके विपरीत प्रभाव की स्थापना करता था और की। यह निष्पक्ष दृष्टि स्याद्वाद-दृष्टि ही है, क्योकि जगत को शून्य बतलाता था । उसमें सभी पक्षों का समादर एव समावेश है । एकान्तअद्वैतवादी का मत था कि एक ही वस्तु है, अनेक दृष्टियो में अपना-अपना भाग्रह होने से अन्य पक्षों का नही । अनेक का दर्शन मायाविज़म्भित अथवा अविषोप- न समादर है और न समावेश है। कल्पित है । प्रतवादियों के भी अनेक पक्ष थे। कोई समन्तभद्र की यह अनोखी किन्तु सही क्रांतिकारी मात्र ब्रह्म का समर्थन करता था, कोई केवल ज्ञान को अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती और कोई केवल शब्द को मानता था। द्वैतवादी इसका जैन ताकिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुई। सिद्धसेन, विरोध करते थे और तत्व को अनेक सिद्ध करते थे। प्रकलंक, विद्यानन्द, हरिभद्र प्रादि ताकिको ने उनका द्वतवादियों की भी मान्यतायें भिन्न-भिन्न थीं । कोई अनुगमन किया है। सम्भवतः इसी कारण उन्हें 'कलियुग सात पदार्थ मानता था, कोई सोलह और कोई पच्चीस में स्याद्वादतीर्थ का प्रभावक' और 'स्याद्वादाग्रणी' आदि तत्वों की स्थापना करता था। रूप में स्मृत किया है। यद्यपि स्याद्वाद और सप्नभंगी का नित्यवादी वस्तु मात्र को नित्य बतलाता था। वह प्रयोग प्रागमों में" तदीय विषयों के निरूपण मे भी होता तर्क देता कि यदि वस्तु अनित्य हो तो उसके नाश हो था, किन्तु जितना विशद और विस्तृत प्रयोग एवं योजना जाने के बाद यह जगत और वस्तुएँ स्थिर क्यों दिखाई उनकी कृतियों में उपलब्ध है उतना उनसे पूर्व प्राप्त नहीं २१. षट्ख ० १. १. ७६, १. २. ५० मादि तथा पंचास्ति० गाथा १४ ।

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