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जनन्याय परिशीलन
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कर्तव्य, पुण्या-पुण्य पौर सुख-दुःख का विचार पैदा करता द्वारा ही सम्भव है। हैएवं मार्ग-दर्शन करता है तथा न्यायशास्त्र दर्शनशास्त्र श्वेताम्बर परम्परा के भागमों में भी "से केवढे के विचार को हेतुपूर्वक मस्तिष्क में बिठा देता है। वस्तुतः भंते एवमच्चाई जीवाणं भंते? कि सासया प्रसासया। न्यायशास्त्र से विचार को जो दृढ़ता मिलती है। वह चिर- गोयमा। जीवा सिय सासया सिय प्रसासया । गोयमा। स्थायी, विवेकाधूत और निर्णयात्मक होती है। उसमें संदेह, दम्बठ्ठयाए सासया भावठ्याए प्रसासमा" । जैसे तर्कगर्भ विपर्यय या अनिश्चितता की स्थिति नहीं रहती। इसी प्रश्नोत्तर मिलते है। "सिया' या 'सिय' शब्द 'स्यात्' (कर्षकारण भारतीय दर्शनों में न्यायशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान चिदर्थबोधक) संस्कृत शब्द का पर्यायवाची प्राकृत शब्द है,
जो स्याद्वाद न्याय का प्रदर्शक है। यशोविजय ने" स्पष्ट जैन न्याय का उद्गम:
लिखा है कि "स्यावादार्थी दृष्टिवादार्णवोत्थः" । स्यावादार्थ प्रस्तुत में जन न्याय, उसके उदगम और विकास पर -जैन न्याय दृष्टिवाद रूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न विचार करना मुख्यतय: अभीष्ट है । प्रथमतः उसके उद्गम हुमा है । यथार्थ में 'स्याद्वाद' जंन न्याय का ही पर्याय शब्द पर विचार किया जाता है।
है। समन्तभद्र ने" सभी तीर्थकरों को स्याद्वादी-स्यावावहम ऊपर दृष्टिवाद अंग का उल्लेख कर पाये है। न्यायप्रतिपादक भोर उनके न्याय को स्याद्वादन्याय बतइसमें जैन न्याय के प्रचुर मात्रा में उद्गम-बीज उपलब्ध लाया है। हैं। प्राचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त कृत "षट्खण्डागम" में, यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ब्राह्मण-न्याय पोर जो उक्त दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जता, बौद्ध-न्याय के बाद जैन न्याय का विकास हुमा है, इसलिए सिया अपज्जता 'मणास-अपज्जता दव्वपमाणेण केवडिया, उसकी उत्पत्ति इन दोनों से मानी जानी चाहिए। छान्दोअंसखेज्जा,' जैसे 'स्यात्' शब्द और प्रश्नोत्तर शैली को ग्योपनिषद् (प्र०७) एक 'वाकोवाक्य' शास्त्र-विद्या का लिए हुए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं, जो जैन न्याय के वीज उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युहैं-उनसे उसकी उत्पत्ति हुई है, यह कहा जा सकता है। तरशास्त्र, युक्ति-प्रति-युक्तिशास्त्र किया जाता है।" 'षट्खण्डागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के वात्स्यायन के न्यायभाष्य" में भी एक आन्वीक्षिकी विद्या पंचास्तिकाय, प्रवचनसार प्रादि पार्ष-ग्रंथों में भी उसके का, जिसे न्याय-विद्या अथवा न्यायशास्त्र कहा गया है, कुछ और अधिक उदगम-बीज मिलते हैं। "सिय पत्थि- कथन मिलता है। तक्षशिला के विश्वविद्यालय में दर्शनणत्थि उहयं', 'जम्हा,''तम्हा' जैसे युक्तिप्रवण वाक्यों एवं शास्त्र एवं न्यायशास्त्र के अध्ययन, अध्यापन के प्रमाण शब्द प्रयोगों द्वरा उनमें प्रश्नोत्तर उठा कर विषयों को भी मिलते बताये जाते हैं ।" इससे जैन न्याय का उद्भव दृढ़ किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि जैन न्याय ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय से हुआ प्रतीत होता है ? का उद्भव दृष्टिवाद अंगश्रुत से हमा है। दृष्टिवाद का यह प्रश्न युक्त नहीं है, क्योंकि उपर्यक्त न्यायों से भी जो स्वरूप दिया गया है, उससे भी उक्त कथन की पुष्टि पूर्ववर्ती उक्त दृष्टिवाव श्रुत पाया जाता है और उसमें होती हैं । उसके स्वरूप में कहा गया" कि 'उसमें विविध प्रचुर मात्रा में जैन न्याय के बीज समाविष्ट हैं । प्रतः दृष्टियों-वादियों की मान्यतामों का प्ररूपण और उनकी उसका उदय उसी से मानना उपयुक्त है । दूसरी बात यह समीक्षा की जाती है।' यह समीक्षा हेतुपों एवं युक्तियों है कि ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय में कहीं भी स्थाद्वाद ८. षट्खंडा. १२११७६, घव. पु. १ पृ. २१६ ।
१३. स्वयम्भू० १४, १०२ । प्राप्तमी. का. १३ । ६. वही, १२२१५०, पु० ३ पृ० २६२ ।
१४. दर्शन का प्रयोजन, पृ.१। १०. पंचा० १४, १३।
१५. न्याय मा. पृ.४। ११. षट्खं०, धवला, पु. १, पृ.१०८।
१६. विक्रम स्मृति ग्रंथ पृ. ७१८ । १२. प्रष्टस. टी. पृ.१।