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जैन न्याय-परिशीलन
डा० दरबारी लाल कोठिया, बारामती
नेमि इए, जो उनके चाचा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनका साहित्य, इतिहास और पुरातत्व की साक्षियों से यह वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। सिद्ध हो च का है कि भारतीय धर्म होते हुए भी जैन धर्म परिष्टनेमि के कोई एक हजार वर्ष पीछे तेईसवें वैदिक और बौद्ध दोनों भारतीय धर्मों से जुदा धर्म है। तीर्थकर पार्श्वनाथ हुए, जो काशी (वाराणसी) के राजा इसके प्रवर्तक हिन्दू धर्म के २४ अवतारों और बौद्ध धर्म विश्वसेन के राजकुमार थे पोर जिन्हें ऐतिहासिक महाके २४ बुद्धों से भिन्न २४ तीर्थकर हैं। इनमें प्रथम तीर्थ- पुरुष मान लिया गया है। इनके पढ़ाई सौ वर्ष बाद कर ऋषभदेव है, जिन्हें प्रादि ब्रह्मा, प्रादिनाथ, बृहद्देव, चौबीसवें तीर्थकर वर्द्धमान-महावीर हुए, जो मन्तिम तीर्थपुरुदेव और वृषभ नामों से भी उल्लेखित किया गया है। कर और बौद्ध धर्म के शास्ता बुद्ध के समकालीन थे एवं युगारम्भ में उन्होंने प्रजा को भोग-भूमि की समाप्ति होने जिन्हें माज २५०० वर्ष हो गए हैं। पर भाजीविका हेतु कृषि (खेती करने), मसि (लिखने
बावशांग मुत: पढ़ने), प्रसि (तलवार मादि साधनों से रक्षा करने)
इन तीर्थंकरों ने जन कल्याण के लिए जो धर्मोपदेश आदि वृत्तियों की शिक्षा दी थी, इससे इन्हें प्रजा
दिया, उसे उनके गणघरों (योग्यतम प्रधान शिष्यों) ने पति भी कहा गया है।' महापुराण, पउमचरिय' मादि के उल्लेखानुसार इनके गर्भ में प्राने पर हिरण्य (सुवर्ण)
में 'द्वादशांग ध्रुत' कहा जाता है। पार्ष, मागम, सिद्धान्त की वर्षा होने के कारण इनका हिरण्यगर्भ भी नाम था।
या। प्रवचन मादि नामों से भी उसका उल्लेख किया जाता है। प्रजापति, हिरण्यगर्भ और वृषभ नामों से इनकी ऋग्वेद,
यह श्रुत मूलत: दो भागों में विभक्त है-(१) अंगप्रविष्ट अथर्ववेद, श्रीमद्भागवत आदि वैदिक वाङ्मय में भी ।
मौर (२) अंमबाह्य । अंगप्रविष्ट वह श्रुत है जो तीर्थकर संस्तुति की गई है । भागवत में तो वृषभावतार के रूप में
की साक्षात् वाणी सुनकर गणधर द्वारा रचा जाता है। पूरा जीवन-चरित देते हुए इन्हें महत-धर्म का प्रवर्तक
इसे वे सुविधानुसार बारह भागों में निबद्ध करते हैं। भी कहा है । अतः ऋषभदेव की मान्यता प्रायः सभी
इस प्रकार है-(१) प्राचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार की है।
स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्या-प्रज्ञप्ति, (६) ऋषभदेव के बाद विभिन्न समयों में क्रमशः अजित- नाथधर्म कथा, (७) उपासकाध्ययन, (८) अन्तःकृद्दश, नाथ से लेकर नमिनाथ पर्यन्त बीस' अन्य तीर्थकर हुए, (8) अनुत्तरोपपादिक दश, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) जिनका जैन वाङ्मय में सविशेष वर्णन है और जो महा- विपाकसूत्र, पौर (१२) दुष्टिवाद । इनमें दृष्टिवाद के भारत काल से प्राक्कालीन हैं। इनके पश्चात् महाभारत पांच भेद हैं-(१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) प्रयमानुकाल में श्री कृष्ण के समय में बाइसवें तीर्थकर मरिष्ट- योग, (४) पूर्वगत और (५) चल्लिका । इनके भी प्रवा१. प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक २॥ ५. अथर्ववेद १५, १, २.७ । २. जिनसेन, महापुराण १२-६५ ।
६. भा. पु., स्क. ५, म. ३ । ३. विमलसूरि, पउमचरि० ३-६८।
७. प्राचार्य कुन्दकुन्द, चवीस-तित्थयर-भत्ति, गा.३,४.५ ५. बही, २, ३३, १५।