Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 257
________________ २५२, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त उद्धरणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अर्धमागधी भाषा के ने इन्हे श्रत केवली कहा है, सिद्धसेन का दिगम्बरी व श्वे. कुछ पाठ उन्हे स्वीकार्य थे। उन्होने बहुत से ग्रन्थकागे ताम्बरी प्रसिद्ध सिद्धान्तो से स्पष्ट मतभेद था, पर काल. का उल्लेख किया है, जिनमें से कुछ यापनीय सघ के साधु गति के साथ-साथ यापनीयो द्वारा सस्थापित मंदिर तथा भी थे। जैसा कि कुछ टीकाकारो ने लिखा है कि अपभ्रश उनमे प्रतिष्ठित मूर्तियां प्राज दिगम्बरी कहलाती है तथा के प्रसिद्ध कवि स्वयंभू आपुलीय या यापनीय संघ के थ दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती है। अत: यह स्वाभाविक ही कुछ विद्वानो का कथन है कि पउमचरिउ के कर्ता श्री है कि विख्यात यापनीयों द्वारा निर्मित साहित्य मुख्यतया विमलसूरि भी यापनीय संघ के थे, पर इस सम्बन्ध मे दक्षिण भारत में ही उपलब्ध है। इसीलिए विमलमूरि के पउमचरिउ के गम्भीर अध्ययन पूर्वक गहन शोध की प्राय- पउम चरिय, रविषेण के पद्मचरित, जटिल (जो सिद्धसेन श्यकता है । और उमास्वाति के प्रत्यधिक ऋणी थे) के वराङ्ग-चरित विख्यात वैयाकरण शाकटायन ने प्रात्म-प्रशस्ति में तथा स्वयंभ के पउम चरिउ प्रादि ग्रन्थो के गम्भीर अध्यनिम्न प्रकार लिखा है५ :-"इति श्री श्रतकेवलि देशी यन एवं गहन शोघ खोज की आवश्यकता है। याचार्यस्य शाकटायनस्य कृती शब्दानुशासने" इत्यादि । यहाँ मै एक और आवश्यक एव ठोस बात कह दूंकि सम्भवत. यही तरीका है जिससे यापनीय साधु (गुरु) स्वय 'गणभेद' ग्रथ के अनुसार अाधुनिक कोप्वल (कोप्पक्ष) को दूसरो से पृथक् समझा करते थे । तत्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति ने भी ऐसा ही वर्णन किया है : यापनीयो का मुख्यपीठ था और वहां पल्लिक्कि गुन्डु में तत्वार्थ-सूत्र-कर्तारम् उमास्वाति मुनीश्वरम् । जटिल या जटाचार्य के चरणचिह्न प्राप्त हुए है। १३वी श्रुत केवलि देशीयम् बन्देऽहम् गुणमन्दिरम् ॥ मदी ई. के प्रारम्भ में कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि जन्न ने सूत्रो और भाष्य का अर्धमागधी भाषा से स्पष्ट मत- जटासिंह नदि को काणर गण का माना है (देखो अनन्तभेद है और पूज्यपाद स्वामी अनेको स्थलो पर मुत्रो के नाथ पुराण I. १७)" जो यापनीय संघ का ही अग था। पाठ से सर्वथा असहमत है ।" स्व. प. नाथराम प्रेमी ने जब मैंने 'वराग चरित' का सम्पादन किया था तो सबसे उमास्वाति के यापनीय होने के पक्ष में प्रबल तर्क प्रस्तुत पहले यही विवाद उठा था कि इसका कर्ता दिगम्बर था किये है। उनका मत है कि शिवार्य और अपराजित मरि या श्वेताम्बर ?" भी यापनीय संघ के ही थे। प्राचीन प्राकृत के श्रेष्ठ ग्रन्थ उपर्युक्त विस्तृत विवरणो से यह स्पष्ट है कि दक्षिण 'प्राराधना' की रचना शिवार्य ने की थी तथा अपगजित भारत के शिलालेखों व विवरणो में यापनीयो का प्रसंग सूरि ने इसकी टीका संस्कृत में की थी । इनके ग्रंथो में बहुलता से विद्यमान है, पर हमें यह भी देखना है कि कन्नड कुछ प्रसग ऐसे है जो श्वेताम्बर या दिगम्बरी दष्टिकोणो और उसके समकक्ष साहित्य में भी यापनीय संघ के कुछ से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते।" सिद्धसेन दिवाकर तो संदर्भ मिलते है कि नहीं ? हरिषेण की"(१३१-३२ ई०) हर सम्भव दृष्टि से यापनीय थे ही, इसी लिए हरिभद्र वृहत्कथा (नं० १३१) मे तथा कन्नड़ के 'वडाराध" ने' ५४. श्री नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास II ५६. देखो 'वरांगचरित' की मेरी प्रस्तावना, बम्बई १६३८ । प्रावृत्ति पृ १६६। 60. Annals of the BO.R I.XIV. 1-11 Poona ५५. शाकटायन व्याकरण कोल्हापुर, १९०७ । 1933, 3rd Ed. Mysore 1972. 56. E.C.VIII, Nagar No. 46, though lateE१ सिंघी जैन सीरीज १७, बम्बई १९७०। in age: it is a valuable record of traditinal Information 62. D. L. Narsimhachar, 4th Ed. p. 93. ५७ श्री नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, Mysore 1970. पृ. ५६, FF521F द्वि. श्रावृत्ति । ६३. कन्नड निघण्टु बगलोर ने इस प्रोर मेरा ध्यान ५८. 'सिद्ध सेन दिवाकर का न्यायावतार और अन्य कार्य' प्राकर्षित किया। श्री हम्पा नागराज ने बताया कि में मेरी प्रस्तावना देखो : जैन साहित्य विकास मडल, कन्नड साहित्य मे जावलिगेप का कहीं उल्लेख नही बम्बई १९७१। मिलता।

Loading...

Page Navigation
1 ... 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268