Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 255
________________ २५० वर्ष २००१ गण के शांतिवीर देव के समाधिमरण का स्पष्ट उल्लेख है, एक और नष्ट हुए इसी तरह के विवरण में इसी स के विवरण में इसी सघ और गण का उल्लेख मिलता है" रग ( जिला वेल्लरी) विवरण मे निसिदि के निर्माण का उल्लेख है, जिसमे आठ नाम लिखे हैं, उनमें से मूलसघ के चन्द्रभूति तथा यापनीय संघ के चन्द्रेन्द्र, बादय्य और तम्मण के नाम स्वाभिप्रेत है" । कुछ और लेख एव विवरण है जो बहुत विलम्ब से प्रकाश में पाये है, उनमे एक है ११२४ ई० का सेम लेख जिसमें मव गण के प्रभावन्द्र विद्या का उल्लेख है। सभवतः यह गण यापनीय संघ से ही मबधित हो" । दूसरा है १२१६ ई० का बदलि ( जिला बेलगाव ) लेख जिसमे यापनीय संघ और कारेय गण का उल्लेख है, इसमें जिन साधुओ के नामोल्लेख है वे है माधव भट्टारक विनयदेव, कीर्ति भट्टारक, कनकप्रभ और श्रीधर विद्य देव" । तीसरा है १२०१ और १२५७ ई० के मरि हलकेरि लेख इसमे यापनीय संघ, महलापान्वय कारयगण का सन्दर्भ मिलते है, इसमें जिन गुरुयो के नाम प्रति है, वे है कनकप्रभ (जो 'जातरूप पर विख्यातम्' कहलाते थे तथा अपनी निर्ग्रन्थता के लिए प्रति प्रसिद्ध थे और श्रीधर ( कनकप्रभ पंडित ) " । चौथा है कोल्हापुर के मगलवार पेठ वाले मंदिर की पहली मंजिल की पीठ वाला कन्नड लेख, जिसमे लिखा है कि वोभियण्ड ने यह पाठशाला बनवाई थी जो यापनीय संघ पुनागवृक्ष मूल गण को विजयकीति के शिष्य रवियण्ण का भाई था। पाँचवा जिसकी प्रतिलिपि डा० गुरूराज भट्ट ने मुझे भेजी थी, जो रंग (द० क०) स्थित प्रतिमा से प्राप्त हुआ है, इसमे काणूर गण का उल्लेख है। श्री भट्ट जी ने इस लेख का गम्भीरता से अध्ययन किया है। उपर्युक्त यापनीय संघ से संबंधित नाना विवरणों और लेखो का (वीं सदी से १४वी सदी ई० तक) तिथिकम से सर्वेक्षण करने पर संघ के बारे में बहुत से सुनि 42 A.R SIE 1925-26, No. 5441-42, p. 76. 43. ARS,IE. 1919 No 109, p. 12. 44. PB Desai: Ibidem p. 403. अनेकान्त श्चित और विस्तृत एवं प्रामाणिक तथ्य प्रकाश मे प्रा है। सर्वप्रथम तो यापनीय जन निर्ग्रन्थों, श्वेतपट और कूर्बको से सर्वथा भिन्न थे। यापनीय संघ का गणो से विशेष संबंध था । जैसे कुमुलिंगण या (कुमुदिगण ) (कोटि) मडुवरण, कण्डर या कारगण, पुनागवृक्ष मूल गण (जो मूल संघ से भी संबंधित है ) वन्दिपुरगण, कारेयगण और नन्दगच्छ और मइलापान्वय आदि आदि। इस तरह विभिन्नगणो से असंगतता से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सब क्रमशः गणो के माध्यम से ही विरुवात हो सका 'गणभेद' ग्रंथ के विवरण से ज्ञात होता है कि वे कर्नाटक और उसके चर्ती क्षेत्र मे अपनिक उपयोगी और प्रसिद्ध थे । फलतः यापनीय मघ किम तरह क्रमश लुप्त होता चला गया और दूसरो के साथ मिलने लगा, खास तौर से दक्षिण मे दिगम्बरो के साथ ही । यापनीय संघ के एक साधु को 'जातरूपघर' कहा गया है जो प्रायः दिगम्बर साधुषो द्वारा ही प्रयुक्त होता था। इस संघ के साधुयो ने अपने चाचार, दर्शन, विचार पादिका ग के साथ कैसे समन्वय किया यह अपने पाप मे शोध का विषय है। इनदि के नीतिमार ( ७२ ) के अनुसार यापनीयो मे सिंह, नदि, सेन और देव सघ प्रादि नाम से सबसे पहले सघ व्यवस्था थी फिर वाद में गण गच्छ प्रादि की व्यवस्था बनी। लेकिन 'गणभेद' ग्रंथ से ज्ञात होता है कि कुछ दिनों बाद गण-विभाजन ने संघ को समाप्त कर उनका स्थान ग्रहण कर लिया। इस गणपक्षपात का विवरण 'श्रुतावतार' (१०१ लोक ) मे स्पष्ट किया गया है जिससे पता चलता है कि किस प्रकार नदि वीर, देव आदि प्रत नाम का " प्रचलन । यापनीय संघ का विवरण जिन स्थानों से मिलता है, उनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस सब के साधुषों का वर्चस्व एव प्रभुत्व आाज के धारवार, बेलगांव, कोल्हापुर और गुलवर्ग आदि जिलो के क्षेत्र में अत्यधिक विपुलता से था" मान्ध्र और तमिलनाडु में इस सब से । 46. K. G. Kundamgar : Inscription from N. 45. R.S. Panchamukh Karnataka Inscription 1, Dharwar 1941, pp. 75-6. Karnatak & Kolhapur State 1931. ४७ जिनविजय (कन्नड) बेलगाव १९३१ (मई-जून) । 48. See Foot Note No 2 cup 11; the Srutavatara is also included in that Volume. 49. See also P.B. Desai, Ibidem pp. 164F.

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