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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
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मादि का उल्लेख मिलता है।वसाम्बि (जिला बेलगाव) यापनोय मघ के कण्डरगण के सकलेन्दु सिद्धान्तिक के में विजयादित्य (शिलाहार गण्डागदित्य के पुत्र) के सेना- शिष्य थे। तेगलि (जिला गुलवर्ग) मे १२वी सदी पति काल न (ण) द्वारा निर्मित नेमिनाथ वसदि से प्राप्त की प्रतिमा है जिसके पीठिका लेख से ज्ञात होता है कि लेख द्वारा ज्ञात होता है कि यापनीय मघ पुन्नाग वृक्ष मूल इसकी प्रतिष्ठा यापनीय सघ के वडिपुर (वन्दिपूर) गण गण के महामडलाचार्य विजयकीति को मदिर के लिए के नागदेव मिद्धान्तिक के शिष्य ब्रह्मदेव ने कराई थी। भूमिदान किया गण था। इनकी गुरु परम्परा निम्न प्रकार १२वी सदी ई. के मनोलि (जिला वेलगाव) के लेख से मिलती है- मनिचन्द्र, विजयकीनि, कुमारकीति और विदित होता है कि यापनीय मघ के गुरु मनिचन्द्रदेव की विद्य विजयकीति प्रादि । र कातिवीर्य ने ११७५ ई० समाधि निमित कराई गई थी जो सिरिया देवी द्वारा मे इस मन्दिर के ससम्मान दर्शन किए थे"। १२वी मदी सस्थापित वमदि (मन्दिर) के प्राचार्य थे। इसी मे यापके मध्य में लिखे गये असिकेरे (मैमूर) लेख में जैन मदिर नीय सघ के मनिचन्द्र के शिष्य पाल्यकीति के समाधिको दिए गए अनुदान का उल्लेख मिलता है। इस लेख मरण का भी उल्लेख है"। १३वी सदी ई० के प्रदर के प्रारम्भिक छन्दो मे से एक छन्द मे मडवगण यापनीय गुन्छि (जिला घारवार) के विवरण मे यापनीय सघ और (संघ) की भूरि भूरि प्रशसा की गई है, मूर्ति प्रतिष्ठा काण्ड रगण की उच्छगि स्थित वमदि को दी जाने वाली पोन्नाग वृक्ष मूल गण और सघ (यापनीय) के शिष्य भमि की मीमायो का लेखा-जोखा प्राप्त होता है। माणिकशेहि द्वारा कराई गई थी, प्रतिष्ठाचार्य थे कुमार. १३वी सदी के हुकेरि (जिला बेलगाव) विवरण से कीति सिद्धान्त जो यापनीय संघ मडवगण से सम्बन्धित जो सर्वथा अस्त-व्यस्त और कटा-फटा है, यापनीय सघ के थे । एक दूसरे लेख में इसके दानकर्ता का नाम यापनीय किसी गण (गण का नाम मिट गया है) के कीर्ति का सघ के सोमय्य का है। दूसरे अन्य विवरणो की भाति नामोल्लेख मिलता है"। इसमे भी जनसामान्य को यापनीय सब से सुसम्बद्ध किया गवाड (जिला बेलगाव) के तलघर मे भ० नेमिहै । दूसरे, इस लेख के सम्पादक का मत है कि इममे से नाथ की एक विशाल प्रतिमा है जिसके पीठिका-लेख मे यापनीय शब्द को मिटा दिया गया है। तीसरे, काष्ठामुख धर्मकीति और गाम बम्मरस के नामोल्लेग्व है, इसमे जो प्रतिबद्ध जैसा शब्द बाद में इसमें जोडा गया है पर यह तिथि अकित है, वह १३६४ ई. के ममकालीन तिथि है। सब सर्वथा अतिशयोक्ति है । वैसे यापनीयो के विरुद्ध कुछ इम विवरण में कुछ व्यवधान भी है पर यापनीय मध और द्वेष तो अवश्य दर्शाया गया है पर कोई पर्याप्त प्रमाण पनागवृक्ष मूल गज के साधुग्रो मे नेमिचन्द्र (जो तुष्टुवउपलब्ध नहीं है कि उनका काष्ठामुख की ओर झुकाव हो गज्य स्थापनाचार्य भी कहलाते थे) धर्मकीति और नागक्योकि काष्ठामुख प्रतिबद्ध शब्द स्वयं बाद मे जोड़ा गया चन्द्र के नाम भी उल्लेखनीय है"। गया है पर यह समझ में नहीं पाता कि इस असगति कुछ बिना तिथियो के भी विवरण उपलब्ध हैं। को हटाने के लिए जिसने काष्ठामुख प्रतिबद्ध शब्द जोडा सिकर (जमवडि) विवरण से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ है, उसी ने यापनीय शब्द को मिटाया हो" । १२वी सदी भट्रारक की प्रतिमा कुमुम जिनालय के लिए यापनीय के लोकपुर के (जिला बेलगाव) विवरण में लिखा है कि सघ और वृक्षमूल गण के कालिमेहि ने भेंट की थो"। ब्रह्म (कल्लभावण्ड के पुत्र) ने उभय सिद्धान्त चक्रवर्ती गरम् (जिला धारवार) विवरण में यापनीय सघ कुमुदि32. E.I.XVIII pp. 201F.
36. A.R.IE. 1960-91, No. 511 also PB. Desal 13. A.R. of the Mysore Arch. Deptt. 1961,
Ibidem p. 404. pp. 48 FE.
37. A.R S.I.E. 1940-41, No. 563-65, p. 245.
38. A.R.SIE 1941-2. No.3, p. 255. 34. Ed. S. Sattar : J. of the Karnatak Uai
39. A.R SI.E. 1941-42, No. 6, p. 261. versity.x,1965, 159 FF. (Kannada) ४०. जिनविजय (कन्नड) बेलगांव जुलाई १९३१ । ३५. कन्नड शोध संस्थान, धारवार १६४२-४८, नं. ४७। 41. A.R.S.I.E. 1938-39, No. 98, p. 219.