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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ पौर प्रकाश
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में थोड़ा बहुत जापुलि संघ का उल्ने ख मिलता है । यद्यपि हरिभद्र के पडदर्शन समुच्चय (चौथे अध्याय के प्रारभ प्रसग बडे भ्रामक है, फिर भी दोनो ही ग्रथो मे प्रधंफालक, से) की टीका करते हा गुणरत्न ने लिखा है" :--दिगबरा काम्बलिक, श्वेत भिक्षु और यापनीय का उल्लेख है । १२वी पुनः नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च. ते चतुर्धा-काष्ठा-मघ, सदी ई. के कवि जन्न के कन्नड़ अनन्तनाथ पुराण में काणर मूलगघ, माथुग्मघ, गोप्य सघ भेदात् । काष्ठासधे चमरी गण (२.२५) के रामचन्द्र देव का उल्लेख है और वह बालश्च पिच्छिका, मूलसंधे मयूरपिच्छ: पिच्छिका, माथरमुनिचन्द्र विद्य को जावलिगेय विशेषण से अलंकृत करता सघे मूलनोऽपि पिच्छिका नाहता, गोप्या मयूर पिच्छिका है, पर उसकी सही और स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता है। प्राद्यस्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवद्धि भणन्ति, स्त्रीणां सम्भवत यह यही मनिचन्द्र है जिनका उल्लेख पाइर्व पं० मक्तिम् केवलिना मुक्तिम् सद्वतम्यापि मचीवरस्य मक्ति न (१२२२ ई.) ने अपने कन्नड पार्श्वनाथ पुगण (१३३) मन्यन्ते, गोप्यस्तु वन्द्यमान धर्मलाभं भणन्ति स्वीणा मक्ति मे किया है। " मेरे विचार से जाबलिगेय विदोषण उनके संघ केवलिना च भक्ति च मन्यन्ते। गोप्य यापनीय. इत्युच्यन्ते।" यापनीय के लिए ही जोड़ा गया है। सबसे अधिक रोचक इस तरह यापनीय का एक दूमग नाम गोप्य भी था, तो यह है कि कवि जन्न ने जटासिह नन्दि को और इन्द्र- जिसे दिगम्बरो के अन्तर्गत रखा है; यद्यपि उन्हे स्त्री-मुक्ति नन्दि को काण रगण का बताया है जो कि यापनीय सघ से और केवलि भुक्ति स्वीकार्य थी, जब कि दिगम्बर इन्हे घनिष्ठता से सम्बन्धित था । कवि जन्न द्वारा की गई नही मानते । यापनीयों को स्त्री-मक्ति और केवलि-भक्ति विभिन्न प्राचार्यो की स्तुति से स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैसे सिद्धान्त मान्य थे, यह शाकटायन के संस्कृत व्याक. गणगच्छ आदि की पृथकतावादी प्रवृत्ति को इन कवियो ने रण से भी मिद्ध होता है, जिसमें उपयूक्त शीर्षको मे दो नही माना था ।
प्रध्याय भी रचे गये थे जो प्रकाशित भी है।" यह प्रत्यऐतिहासिक लेवो, विवरणो एव साहित्यिक उल्लेखो धिक रुचिकर है कि शाकटायन व्याकरण दक्षिण भारत के यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि यापनीय दिगम्बरो के दिगम्ब्रगे मे अत्यधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है। पर ये माथ माथ रहा करते थे । यापनीयो के कुछ मन्दिर और दोनो सिद्धान्त (म्बीमुक्ति केवलि भक्ति) श्वेताम्बरो में मूर्तियाँ पाज भी दक्षिण भारत में दिगम्बगे दवाग प्रजे ही प्रचलित एव मान्य हैं। जाते है । गुणरत्न (१३४८-१४१८ ई.) को यापनीयो अन्त मे श्रुतसागर (१५वी सदी विक्रमी) यापनीयों के बारे में विशेष जानकारी नही है और श्रमागर को को नहीं मानते । वे इन्द्रनन्दि के छन्द को उदधत करते हा (१६वी सदी विक्रमी) तो यापनीयो से तनिक भी महानु- यापनीयो को केवल जैनाभास ही कहते है, और गोपुच्छिक भूति नहीं है और तथ्य यह है कि आज भी बहुत बड़े श्वेतवास, द्रविड और यापनीय के विषय मे लिखते है :रूढिवादी विद्वान यह नही जानते कि जो कुछ थोडी- "द्रविडा. सावद्य प्रामूक च न मन्यन्ते, उदभोजन निराकबहुत मूर्तिया दिगम्बर मन्दिरो मे है, वे सब यापनीयो से वंन्ति यापनीयास्तु वेसरा इवोभय मन्यन्ते, रत्नत्रय पूजही सम्बन्धित हैं। फिर भी यापनीयो द्वारा प्रतिष्ठित एव यन्ति, कल्प च वाचयन्ति, स्त्रीणा तदभवे मोक्ष, केवलि पूज्य प्राचीन मूर्तियों पर आपत्ति करते हैं । यापनीय जिनाना कवलाहार पर शासने मग्रन्थाना मोक्ष च कथप्राचार्यों द्वारा प्रयुक्त सिद्धान्तिक, विद्य आदि उपा- यन्ति ।" धियों से विदित होता है कि वे पट्खण्डागम प्रादि के अध्यक्ष-प्राकृत एवं जैन-विद्या-विभाग, विशिष्ट प्रध्येता थे। इस विषय में अभी और अधिक शोध
मगर विश्वविद्यालय, मानस-गगोत्री की भावश्यकता है।
मैसूर-६ (कर्णाटक)
६४. भारतीय ज्ञानपीट, वाराणसी १६७०, .१६०-६१॥ ६५. See the Appendix to the Intro. by Dr.
Birwe to the शाकटायन व्याकरण noted above.
Muni Sri Jamhu Vijayaji is bringing out
a new ed. along with the स्वोपज्ञ टीका। ६६ उपर्युक्त षट् प्राभतादि संग्रह पृ. ११ ।