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थे।
जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
२४५ प्राचार्य देवसेन (९-१०वी ईस्वी) ने अपने दर्शनसार नही दिया गया है क्योकि एक तो यापनीयों के विरुद्ध कुछ में संघों का कुछ विवरण दिया है, जो यहाँ उल्लेखनीय द्वेष या पूर्वग्रह भाव सा रहा है । दूसरे दिगम्बरो तथा श्वेहै। श्री कलश (विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष बाद) ने ताम्बरो की भांति अाजकल उनका कुछ अस्तित्व भी नहीं यापनीय संघ की, वज्रनंदी ने (विक्रम की मृत्यु के ५२६ है। यापनीयो के उद्गम के बारे में बहुत सी किवदन्तियां वर्ष बाद) द्रविड़ संघ की, कुमार सेन ने (विक्रम की (परम्पराय) है । प्राचार्य देवसेन ने विक्रम की मृत्यु के १०१ मृत्यु के ७५३ वर्ष बाद) काष्ठा संघ की तथा रामसेन ने या ११० वर्ष बाद 'दर्शनसार' की रचना की थी। वे इस (विक्रम की मृत्यु के ६५३ वर्ष बाद) मथरा संघ की ग्रंथ मे लिखते है कि थी कलश नामक श्वेताम्बर साध ने स्थापना की थी। ऐसे विभाजन प्राचारों की विभिन्नता कल्याण नगर मे विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष बाद यापके कारण सर्वथा अपरिहार्य थे क्योकि श्रमणो के सध इस
नीय सघ प्रारम्भ किया था। दूगरे रत्ननदी (१५वीं देश के विभिन्न भागों में प्रवास और विहार किया करते ई० के बाद) ने अपने भद्रबाहु-चरित में यापनीय संघ की
उत्पत्ति के बारे में निम्न घटना लिखी है--"महाराज उपर्युक्त गण, कुल, संघ, गच्छ प्रादि भेदों की कुछ भूपाल करहाटक में राज्य कर रहे थे। उनकी नकलादेवी परिभाषायें भी उपलब्ध हैं। जैसे तीन साधनों के समूह नाम की प्रिया रानी थी। एक बार रानी ने अपने पति को गण, सात साधुग्रो के समूह को गच्छ तथा साघुप्रो की से कहा कि मेरे पैतृक नगर में मेरे कुछ गुरुजन (मनि नियमित जाति को सघ कहा जाता था। पर ये परि- गण) पधारे है, सो पाप वहां जाकर उनसे अनुनय-पूर्वक भाषायें सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य न थी। कही-कही गण प्रार्थना करे कि वे (साधु) यहाँ पधारे और हमारे घार्मिक और संघ को एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त करने के उदा- अनुष्ठानो की शोभा बढावे । महाराज भपाल ने नकूला हरण मिलते है । उद्योतन (७७६ ई.) के अनुसार गच्छ देवी के कथनानुसार अपने मत्री बद्धिसागर को गुरुयो के शब्द का प्रयोग मूलत: अपने मखिया के नेतृत्व में विहार पास भेजा जो उन्हें बड़ी प्रार्थना और विनती के साथ करने वाले साधुओं (group) के लिए ही किया करहाटक राज्य मे ले आया। राज्य में साधूग्रो के पधाजाता था। पारपरिक अर्थ तो दिगम्बर-श्वेताम्बरो के रने पर महाराज भूपाल उनकी अगवानी के लिए बड़े प्रमुख साधुनो से ही ग्रहण किए जा सकते है।
ठाट-बाट से गए, पर जैसे ही राजा ने उन साधनों को एक कन्नड पाइलिपि 'गणभेद' मे सघ की अपेक्षा दूर से देखा कि वे नग्न दिगम्बर साधु नही है तो राजा गण को ही अधिक महत्व दिया गया है। इसमे चार को बड़ा आश्चर्य हुप्रा और सोचने लगा कि ये सवस्त्र गण माने गये है जिन्हे कुछ सपो से अन्तवंद्ध किया गया साधु कौन है ? इनके पास भिक्षा पात्र है और लाठी भी है जैसे १. सेनगण (मूलसंघ), २. बलात्कारगण (नंदी- है। गजा को अच्छा न लगा और उसने उन साधयों को संघ) ३. देशीगण (सिंह सघ) और ४. कालोग्रगण अनादर पूर्वक वापिस लोटा दिया और अपनी रानी के (यापनीय सघ)।
पास प्राकर कहा कि उसके गुरुजन तो पाखण्डी और यापनीय संघ की शोघ एवं खोज की ओर विशेष ध्यान नास्तिक है, मै उनका सम्मान और अगवानी करने का
BAnnals of the B.O.R.I.XV. III-IV, pp.
198ff, Poona 1934. ७. देखो मूलाचार पर यशोनंदी की संस्कृत टीका IV
३२ बम्बई १६२० । ८. कुवलयमाला पृ. ८० पंक्ति १७ एफ, बम्बई १९५६ । ६. कालोग्रगण यापनीय संघ से संबधित कण्डर या काणर
गण का संस्कृत रूप प्रतीत होता है।
१०. देखो रत्ननदी का भद्रबाहु-चरित, कोल्हापूर १६२१.
IV पृ. १३५-५४ । H. Jacobi : Uber die cntstehung der Svetambara and Digambara, Scktenzdmg XXXVIII pp. 1-42; H. Luders . HI, IV p,338.