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जैन न्याय-परिशीलन
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विद्यानन्द ने इन प्रत्यक्ष भेदों का विशदता और प्रमाण का फल : विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के प्रारम्भ प्रमाण का फल अर्थात प्रयोजन वस्तु को जानना
स्वग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–ये चार भेद है । ये प्रो चारों पांच इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थभेदों के फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके ग्राह्य होने निमित्त से होते है। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नही पर उसमे ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर हेध बुद्धि और उपेक्षहोता, केवल चार इन्द्रियो से वह बहु प्रादि बारह प्रकार णीय होने पर उपेक्षा-बद्धि होती है। ये बद्धियां उसका के अर्थों में होता है। अतः ४४१२४५-२४० मोर परम्परा फल है। प्रत्येक प्रमाता को ये दोनों फल उप१x१२४४-४८ कूल २८८ इन्द्रिय प्रत्यक्ष के भेद है। लब्ध होते है। प्रनिन्द्रिय प्रत्यक के ४४१२४१४८ भेद है। इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष ये दोनों मतिज्ञान अर्थात् नय संव्यवहारप्रत्यक्ष के कूल ३३६ भेद है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जहाँ प्रमाण से प्रखण्ड के दो भेद है-(१) विकल प्रत्यक्ष और (२) सकल (समग्र) रूप मे होता है, वहा नय से खण्ड (प्रश) रूप प्रत्यक्ष । विकल प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-(१) मे होता है। धर्मी का ज्ञान प्रमाण और धर्म का ज्ञान अवधिज्ञान और (२) मन: पर्ययज्ञान । सकल प्रत्यक्ष मात्र नय है। दूसरे शब्दो में वस्त्वशग्राही ज्ञान नय है। यह एक ही प्रकार का है और वह है केवल प्रत्यक्ष । इनका मूलत. दो प्रकार का है-(१) द्रव्याथिक और (२) विशेष विवेचन प्रमाणपरीक्षा से देखना चाहिए। इस पर्यायाथिक । मथवा (१) निश्चय मोर (२) व्यवहार । प्रकार जैन दर्शन मे प्रमाण के मूलतः प्रत्यक्ष और परोक्ष-- द्रव्याथिक द्रव्य को, पर्यायाधिक पर्याय को, निश्चय प्रसंये दो ही भेद माने गए है।
योगी को और व्यवहार सयोगी को ग्रहण करता है। इन
मूल नयो के प्रवान्तर भेदों का निरूपण जैन शास्त्रों में प्रमाण का विषय :
विपुलमात्रा में उपलब्ध होता है। वस्तु को सही रूप में जैन दर्शन में यतः वस्तु अनेकान्तात्मक है, अत प्रत्यक्ष जानने के लिए उनका सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया प्रमाण हो, चाहे परोक्ष प्रमाण, सभी सामान्य-विशेषरूप, है। विस्तार के कारण वह यहा नही किया जाता। यहाँ द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेका- हमने जैन न्याय का सक्षेप में परिशीलन करने का प्रयास न्तात्मक वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते है। कोई भी किया है। यों उसके विवेचन के लिए एक पूरा ग्रथ प्रपेप्रमाण केवल सामान्य या केवल विशेष आदि रूप वस्तु क्षित है।
00 को विषय नही करते, क्योकि वैसी वस्तु ही नही है। ११/२८, चमेली कुटीर, वस्तु तो अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है। डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५
८६. 'तत् त्रिविधम्- इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियप्रत्यक्षवि- मपि मुख्य प्रत्यक्षम्, मनोक्षानपेक्षत्वात् ।' कल्पात् । तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं साव्यवहारिक देशतो विश
-प्र. प. पृ. ३८, अनुच्छेद ६१ । दत्वात । तद्वदनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष तु ८७. प्र. प. पृ. ४० । द्विविधं विकलप्रत्यक्ष सकलप्रत्यक्षं चेति । विकल- ८८ वही, पृ. ६५ । प्रत्यक्षमपि द्विविधम् -अवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं ६. प्र. प. पृ. ६६ । चेति । सकलप्रत्यक्ष तु केवलज्ञानम् । तदेतत्त्रिविघ- ६०. लघी. नयप्रवेश, का. ३०-४६ ।