Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 247
________________ २४२, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त लाया है और स्वार्थानुमान को" अभिनिबोधरूप मतिज्ञान- प्रत्यक्ष के भेव : विशेष कहा है। पागम की प्राचीन परम्परा यही है। प्रत्यक्ष के भेदों का निर्देश सर्वप्रथम प्राचार्य ग. श्रतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम- पिच्छ• ने किया है। उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन विशेष रूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग- प्रकार का है--(१) अवधिप्रत्यक्ष, (२) मनःपर्ययप्रत्यक्ष कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो और (३) केवल प्रत्यक्ष । पूज्यपाद ने इन्हे दो भेदों में प्रविशद ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है"; अथवा प्राप्त के बांटा है-(१) देश प्रत्यक्ष और (२) सर्वप्रत्यक्ष । अवधि वचन, अंगुली प्रादि के सकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान प्रौर मनः पर्यय-ये दो प्रत्यक्ष ज्ञानमतिक पदार्थ को ही थत है। यह श्रुतज्ञान सन्तति की अपेक्षा अनादि निधन जानने के कारण देश-प्रत्यक्ष है और केवल प्रत्यक्ष मूर्तिक है। उसकी उत्पादक सर्वज्ञ परम्परा भी अनादिनिधन है। और अमूर्तिक सभी पदार्थो को विषय करने से सर्वप्रत्यक्ष बीजांकूरसन्तति की तरह दोनो का प्रवाह अनादिनिधन है। किन्त तीनों ही प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होने और है। प्रतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रुतज्ञान है और इन्द्रियादि पर की अपेक्षा से न होने तथा पूर्ण विशद होने वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण । से प्रत्यक्ष है। अकलंकदेव" ने पागम की इस परम्परा को अपनाते प्रत्यक्ष: हए भी उसमें कुछ मोड़ दिया है । उन्होने प्रत्यक्ष के मुख्य जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश प्रादि पर की अपेक्षा नही और संव्यवहार के भेद से दो नये मेदों का प्रतिपादन रखता और प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होता है, वह प्रत्यक्ष किया है। लोक में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान है" | अकलंक देव" ने इस लक्षण को प्रात्मसात् कहा जाता है। पर जैन दर्शन उन्हे परोक्ष मानता है। करते हुए भी एक नया लक्षण प्रस्तुत किया है, जो दार्श- प्रकलंक ने प्रत्यक्ष का एक संव्यवहारभेद स्वीकार कर निकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है। वह है उसके द्वारा उनका संग्रह किया और व्यवहार (उपचार) विशद ज्ञान । जो ज्ञान विशद अर्थात् अनुमानादि ज्ञानों से से उन्हे प्रत्यक्ष कहा। इस प्रकार उन्होने अागम और मधिक विशेष प्रतिभासी होता है, वह प्रत्यक्ष है। उदाहर- लोक दोनों दष्टियो में समेल स्थापित कर उनके विवाद णार्थ-'मग्नि है' ऐसे किसी विश्वस्त व्यक्ति के वचन से को सदा के लिए शान्त किया। उत्पन्न अथवा 'वहां अग्नि है, क्योकि धुओं दिख रहा है' एक दूसरे स्थान पर उन्होने" प्रत्यक्ष के तीन भी भेद ऐसे घूमादि साधनों से जनित अग्निज्ञान से, 'यह अग्नि है। बतलाए है-(१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष अग्नि को देख कर हुए अग्निज्ञान मे जो विशेष प्रतिभास- और (३) अतीन्द्रियप्रत्यक्ष । प्रथम के दो प्रत्यक्ष संव्यव. रूप वैशिष्ट्य अनुभव मे पाता है, उसी का नाम विशदता हार प्रत्यक्ष ही है, क्योकि वे इन्द्रियपूर्वक व प्रनिन्द्रियहै और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है। तात्पर्य पूर्वक होते है। अन्त का प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष यह कि जहाँ प्रस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है, वहाँ स्पष्ट ज्ञान है, क्योकि वह इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न करके प्रात्मप्रत्यक्ष है। मात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होता है। ७५. प्र. प. पृ.५८ । ८१. .... तद्वेघा' 'देशप्रत्यक्षं सर्वप्रत्यक्ष च । देशप्रत्यक्ष७६. विशेष के लिए देखें, 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान मवविमन पर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् ।' विचार', पृ. ७७-८५। -स. सि. १।२१ की उत्थानिका। ७७. प्र. प. पृ. ५८ । ५२. त. सू. १२२७, २८ । ७८. स. सि. १२१२, पृ. १०३ । ६६. लघी. १।३।। ८३. त. सू. २२६ । ८०. 'प्रत्यक्षमन्यत्'-त. सू. १।१२।स. सि. १२१ की ८४. लघीय. ११३ । उत्थानिका। ८५. प्र. स. स्वोपज्ञवृत्ति. १।२ ।

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