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जैन न्याय-परिशीलन
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परोक्ष है, यह भी विद्यानन्द ने स्पष्टता के साथ प्रतिपादन (२) परार्थानुमान। अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित किया है।
साध्याविनाभावी साधन से साध्य का ज्ञान करता है तो विद्यानन्द" की एक और विशेषता है । वह है अनुमान उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है। उदाहरणार्थऔर उसके परिकार का विशेष निरूपण । जितने विस्तार जब वह धूप को देख कर अग्नि का ज्ञान, रस को चख के साथ उन्होने अनुमान का प्रतिपादन किया है, उतना कर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृत्तिका के उदय को स्मृति आदि का नही। तत्वार्थलोकवातिक और प्रमाण देख कर एक मुहुर्त बाद होने वाले संकट के उदय का परीक्षा में अनुमान-निरूपण सर्वाधिक है। पत्रपरीक्षा में ज्ञान करता है; तब उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान है। तो प्राय: अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है। विद्या- जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यो को बोल नन्द ने अनुमान का वही लक्षण दिया है जो प्रकलंक- कर दूसरों को उन साध्य-साधनों की व्याप्ति (अन्यथानुदेव" ने प्रस्तुत किया है, अर्थात् 'साधनात्साध्य विज्ञानम- पत्ति) ग्रहण कराता है और दूसरे, उसके उक्त वचनों को नुमानम्'- साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को उन्होने सुन कर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों अनुमान कहा है। साधन और साध्य का विश्लेषण भी का ज्ञान करते है तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थाउन्होने अकलंक-प्रदर्शित दिशानुसार किया है। साधन" नुमान है। वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है। साध्य के धर्मभूषण" ने स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुहोने पर ही होता है और साध्य के न होने पर नहीं मान के सम्पादक तीन अगो और दो अगों का भी प्रतिहोता । ऐसा अविनाभावी साधन ही साध्य का अनूमापक पादन किया है। वे तीन प्रग है-(१) साधन, (२) होता है, अन्य नहीं। त्रिलक्षण, पंचलक्षण प्रादि साधन- साध्य पोर (३) धर्मी। साधन तो गमक रप अंग है, लक्षण सदोष होने से युक्त नही है"। इस विषय का
साध्य गम्य रूप से और धर्मी दोनों का प्राधार रूप से । विशेष विवेत्तन हमने अन्यत्र किया है।
दो अंग है-(१) पक्ष पोर (२) हेतु । जब साध्य धर्म साध्य" वह है जो इष्ट-अभिप्रेत, शक्य-अबाधित
को धर्मी से पृथक नही माना जाता-उससे विशिष्ट धर्मी पौर अप्रसिद्ध होता है। जो अनिष्ट है, प्रत्यक्षादि से
को पक्ष कहा जाता है तो पक्ष भोर हेतु-ये दो ही अंग बाधित है और प्रसिद्ध है, वह साध्य-सिद्ध करने योग्य
विवक्षित होते है। इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षानहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है, उसे इष्ट होना
भेद है-मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानु
मान के, प्रतिपाद्यों की दृष्टि रो, दो, तीन, चार और पाँच चाहिए, अनिष्ट को कोई सिद्ध नही करता। इसी तरह
अवयवों का भी कथन किया गया है। दो अवयव प्रतिज्ञा जो बाधित है-सिद्ध करने के अयोग्य है, उसे भी सिद्ध नही किया जाता तथा जो सिद्ध है उसे पुनः सिद्ध
मोर हेतु है। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार करना निरर्थक है। प्रतः निश्चित साध्याविनाभावी साधन मोर निगमन सहित वे पांच अवयव हैं। (हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और प्रसिद्ध रूप साध्य का यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्द" ने परार्थानुमान विज्ञान किया जाता है, वह अनुमान प्रमाण है। के अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत-इन दो भेदो को प्रकट
अनुमान के दो भेद हैं-(१) स्वार्थानुमान और करते हुए उसे अकलंक के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बत६७. प्र. प. पृ० ४५ से ५८ ।
७१. प्र०प० पृ० ४५ से ४६ । ६८. प्र०प० पृ० ४५।
७२. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ६२, वीर६६. 'साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं तदत्थयो '-न्या०वि० सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १९६६ । द्वि० भा० ॥१॥
७३. प्र. प, पृ. ५७। ७०. 'तत्र साधनं साध्याविनाभावनियमनिश्चयकलक्षणम।' ७४. न्या. दी, पृ. ७२, ३-२४ ।
-प्र०प० पृ० ४५॥