Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 244
________________ जैन न्यायपरिशीलन २३९ प्रमाण-भेद: म्परा का भी संरक्षण रहता है। विद्यानंद" और माणिप्रमाण के कितने भेद सम्भव और पावश्पक हैं, इस क्यनंदि" ने भी प्रमाण के यही दो भेद स्वीकार किए और दिशा में सर्व-प्रथम प्राचार्य गद्धपिच्छ" ने निर्देश किया। अकलंक की तरह ही उनके लक्षण एवं प्रभेद निरूपित है। उन्होंने प्रमाण के दो भेद बतलाये है--(१) परोक्ष किए है : उत्तरवर्ती जन ताकिकों ने प्रायः इसी प्रकार का १९ ह और (२) प्रत्यक्ष । पूर्वोक्त पाँच सम्यग्ज्ञानो मे आदि के प्रतिपादन किया है। दो ज्ञान-- मति और श्रुत-परसापेक्ष होने से परोक्ष तथा परोक्ष : अन्य तीन ज्ञान, अवधि, मन पर्यय और केवल इन्द्रियादि परोक्ष का स्पष्ट लक्षण प्राचार्य पूज्यपाद" ने प्रस्तुत परसापेक्ष न होने एव प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होने के किया है। उन्होने बतलाया है कि पर प्रर्थान् इन्द्रिय, मन, कारण प्रत्यक्ष-प्रमाण है। प्रमाण-द्वय का यह प्रतिपादन प्रकाश और उपदेश प्रादि बाह्य निमित्तों तथा स्वावरणइतना विचारपूर्ण और कुशलता से किया गया है कि इन्ही कर्मक्षयोपशमरूप प्राम्यन्तर निमित्त को अपेक्षा से प्रात्मा दो में सब प्रमाणों का समावेश हो जाता है। मति में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है । अतः मतिज्ञान (इंद्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव), स्मृति, सज्ञा (प्रत्यभि- मोर श्रुतज्ञान दोनों उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होते ज्ञान), चिन्ता (तकं) और अभिनिबोध (अनुमान)। ये है, अत. ये परोक्ष कहे जाते है । अकलक ने इस लक्षण पांचों ज्ञान इद्रिय और अनिन्द्रिय सापेक्ष होने से मतिज्ञान के साथ परोक्ष का एक लक्षण और किया है, जो उनके के ही अवान्तर भेद है और इस लिए उनका परोक्ष मे ही न्याय प्रथों में उपलब्ध है। वह है अविशद ज्ञान । अर्थात् अन्तर्भाव किया गया है।" अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है। यद्यपि दोनों (परापेक्ष और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता अकलंक ने भी प्रमाण के प्रविशद ज्ञान) लक्षणो में तत्वत: कोई प्रतर नही हैइन्हीं दो भेदों को मान्य किया है। विशेष यह कि उन्होने जो परापेक्ष होगा. वह अविशद होगा, फिर भी वह दार्श. प्रत्येक के लक्षण और भेदो को बतलाते हुए कहा है कि निक दृष्टि से नया एव सक्षिप्त होने से अधिक लोकप्रिय विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह मुख्य तथा संव्यवहार के पोर ग्राह्य हुअा है। विद्यानंद ने दोनो लक्षणो को अपभेद से दो प्रकार का है। इसी तरह अविशद ज्ञान परोक्ष नाया है और उन्हे साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है और उसके प्रत्यभिज्ञा प्रादि पांच भेद है। उल्लेख्य है है। उनका मन्तव्य है कि परापेक्ष होने के कारण परोक्ष कि प्रकलंक ने उपयुक्त परोक्ष के प्रथम भेद मति (इद्रिय- अविशद है । माणिक्यनदि ने परोक्ष के इसी अविशदतामनिन्द्रिय-जन्य अनुभव) को सव्यवहार-प्रत्यक्ष भी वणित लक्षण को स्वीकार किया है और उसे प्रत्यक्षादिपूर्वक किया है। इससे इंद्रिय-अनिद्रियजन्य को प्रत्यक्ष मानने होने के कारण परोक्ष कहा है। परवर्ती न्यायलेखकों ने की लोकमान्यता का संग्रह हो जाता है और आगम पर- अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्राय: प्रश्रय दिया है। ५०. 'तत्प्रमाणे', 'प्राये परोक्षम', 'प्रत्यक्षमन्यत्'। ५६. 'तथोपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्ष परोक्षम्। -त. सू. १-१०, ११, १२ । __ - त. वा. १-११। ५१. 'मतिः स्मति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्'। 'ज्ञानस्येव विशदनिर्भासिनः प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य परो क्षता'। -लघीय. १.३ की स्वीपज्ञवृत्ति । ५२. लघीय. १.३, प्रमाणसं. १-२।। ५७. 'परोक्षमविशदज्ञानात्मकम, परोक्षत्वात्' । ५३. प्र. परी. पृ. २८, ४१, ४२ । -प्रमाणपरी. पृ. ४१। ५४. परी. मु. २-१, २, ३, ५, ११ तथा ३.१, २। ५८, 'परोक्षमितरत्', प्रत्यक्षादिनिमित्त स्मतिप्रत्यभिज्ञान५५. 'पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्य तर्कानुमानागमभेदम्। -परी. म. ३-१, २। निमित्त प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो। मतिश्रुत उत्पद्यमानं परोक्ष मित्याख्यायेते' । '५९. 'प्रविशदः परोक्षम्। -स.सि. १.११॥ -प्र. मी. १२२१मादि।

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