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२१२, वर्ष २८, कि०१
का समर्थन नहीं है, प्रत्युत उसकी मीमांसा है। ऐसी जैन दर्शन क्षेत्र में युगप्रवर्तक का कार्य किया है। उनसे स्थिति में स्याद्वाद रूप जन न्याय का उद्गम स्यावादात्मक पहले बैन दर्शन के प्राणभूत तत्व 'स्याद्वाद' को प्रायः दृष्टिवाद श्रुत से ही सम्भव है। सिद्धसेन," प्रकलंक, आगम रूप ही प्राप्त था और उसका प्रागमिक तत्वों के पौर विद्यानन्द" का भी यही मत है। प्रकलंक देव ने निरूपण में ही उपयोग होता था तथा सीधी-सादी विके म्यायविनिश्चय के प्रारम्भ में कहा है कि "कुछ गुण द्वेषो चना कर दी जाती थी। विशेष युक्तिवाद देने की उस ताकिकों ने कलिकाल के प्रभाव और अज्ञानता से स्वच्छ समय आवश्यकता नहीं होती थी; परन्तु समन्तभद्र के न्याय को मलिन बना दिया है । उस मलिनता को सम्य- समय में उसकी प्रावश्यकता महसूस हुई, क्योंकि दूसरीज्ञानरूपी जल से किसी तरह दूर करने का प्रयत्न करेंगे। तीसरी शताब्दी का समय भारतवर्ष के इतिहा प्रकलंक के इस कथन से ज्ञात होता है कि जैन न्याय दार्शनिक क्रान्ति का रहा है । इस समय विभिन्न दर्शनों में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय से पूर्व विद्यमान था और अनेक क्रान्तिकारी विद्वान पैदा हुए हैं । यद्यपि महावीर जिसे उन्होने मलिन कर दिया था, तथा उस मलिनता को भौर बुद्ध के उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक परम्परा का प्रकलंक ने दूर किया। अत: जैन न्याय का उद्गम उक्त बढ़ा हुमा प्रभाव काफी कम हो गया था और श्रमणम्यायों से नही हुमा, अपितु दुष्टिवाद श्रुत से हुआ है। जैन तथा बौद्ध परम्परा का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो चुका
सम्भव है कि उक्त न्यायों के साथ जैन न्याय भी था। किन्त कछ शताब्दियों के बाद वैदिक परम्परा का फला-फूला हो; अर्थात् जैन न्याय के विकास में ब्राह्मण- पुन: प्रभाव प्रसृत हुआ और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमणन्याय और बौद्ध न्याय का विकास प्रेरक हुमा हो और परम्परा के सिद्धान्तों की मालोचना एवं काट-छांट प्रारंभ उनकी विविध क्रमिक शास्त्र रचना जैन न्याय की ऋमिक हो गई। फलस्वरूप श्रमण- बौद्ध परम्परा मे अश्वघोष, शास्त्र रचना में सहायक हुई हो । समकालीनों में ऐसा मातृचेट, नागार्जुन प्रभृति विद्वानों का प्रादुर्भाव हुमा और मादान प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक है। उन्होंने वैदिक परम्परा के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का जैन न्याय का विकास :
खण्डन और अपने सिदान्तों का मण्डन, प्रतिष्ठापन तथा ___ काल की दृष्टि से जैन न्याय के विकास को तीन
परिष्कार किया। उघर वैदिक परम्परा में भी कणाद, कालों में बांटा जा सकता है और उन कालों के नाम
भक्षपाद, बादरायण, जमिनी मादि महा उद्योगी विद्वानों निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :
का प्राविर्भाव हमा भौर उन्होंने भी प्रश्वघोषादि बौद्ध. १-पादिकाल अथवा समन्तभद्रकाल (ई० २०० से
विद्वानों के खण्डन-मण्डन का सयुक्तिक जवाब देते हुए ई०६५० तक)।
अपने वैदिक सिद्धान्तों का संरक्षण किया। इसी दार्शनिक २-मध्यकाल अथवा अकलंककाल (ई०६५० से ई० उठापटक में ईश्वरकृष्ण, प्रसंग, वसुवन्धु, विन्ध्यवासी, १०५० तक)।
वात्स्यायन प्रभृति विद्वान् दोनों ही परम्पराओं में हुए। ३-अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्रकाल (ई. १०५० से इस तरह उस समय सभी दर्शन अखाड़े बन चुके थे और ई० १७०० तक)।
परस्पर में एक दूसरे को परास्त करने में लगे हुए थे। १.माविकाल अथवा समन्तभद्र काल:
इस सबका भाभास उस काल के अश्वघोषादि विद्वानों के जैन न्याय के विकास का प्रारम्भ स्वामी समन्तभद्रले उपलब्ध साहित्य से होता है। जब ये विद्वान् अपनेहोता है । स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्र के अपने दर्शन के एकान्त पक्षों और मान्यताओं के समर्थन १७. द्वात्रिशिका १-३०, ४.१५ ।
२०. महात्म्यात्तमसः स्वयं कलिवशात्प्रायो गुणद्वेषिभिः । १८. तत्वार्थवार्तिक पृ. २६५ ।
न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य ननीयते, १६. प्रष्टसहस्री पृ. २३८ ।
सम्यग्ज्ञानजलचो निरमलस्तत्रानुकम्पापरः ॥
न्यायवि० श्लो०१