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७८, वर्ष २८, कि० १
प्रनेकान्त
घर में बड़े बड़े लोग बच्चे को कहते है मा को बुला ला। अवस्था बदली हुई है। प्रमाण दृष्टि एक समय में यह इसका मतलब उनकी अपनी मां मे नही परन्तु बच्चे की देखती है कि वस्तु अनन्य होते हुए भी अन्य रूप है । मां से है। परन्तु कहा यही जाता है क्योंकि बच्चा उसी प्रमाण दृष्टि वह है जहाँ पर दोनों दृष्टि रूप वस्तु को भाषा में बात को समझता है। इसी प्रकार वहने वाले को एक साथ देखा जाता है। परन्तु कथन एक साथ नहीं वही भाषा बोलनी पडती है परन्तु यह समझ कर बोलता होकर प्रागे पीछे ही होगा। इसलिए तराज की डंडी को है कि यह सुनने वाले को समझाने के लिए बोली जा प्रमाण कहा जाता है और दोनों पलडों को दो दष्टियाँ रही है।
कहा जाता है अथवा ऐसा भी कह सकते है कि न्याय करने ____ समयसार मे उन्होने इसी विषय का खुलासा करते वाला जब प्रमाण रूप होता है, वह किसी दृष्टि का पक्ष. हए लिखा है कि आत्मा अवद्ध-अस्पर्श अनन्त-प्रनित्य- पात नहीं करता और दोनो पक्षो के दो वकील दो नय प्रस युक्त और प्रविशेष है। जो ऐसी आत्मा को देखता है, कहलाते है। वे अपने-अपने पक्ष का प्रतिपादन करते है । वह परे अागम को देखने वाला है। वहा लिखा है कि ज्ञान है, वह प्रमाणरूप है और शब्दो से जो कथन किया अगर परमार्थ दृष्टि के विषयभूत आत्मा को देखे तो वह जाता है, वह नयरूप होता है। न कर्मों से बंधा है, न कर्मो से स्पर्शित है। परन्तु उसी वक्त पर्यायरूप से प्रात्मा को देखे तो कमों से बधा भी है।
तीसरी बात है कि आत्मा को जब द्रव्य दृष्टि से
देखते है तो वह नित्य द्रव्य रूप दिखता है और उसी वक्त पौर स्पर्शित भी है। उदाहरणार्थ-एक पादमी रस्सी से
अगर पर्याय दृष्टि से देखा जाता है तो समय-समय में बंधा हुआ है, उसको अगर परमार्थ दृष्टि से देखें तो,
पर्याय याने अवस्था बदली हो रही है, उत्पाद-व्ययपने को क्योंकि परमार्थ दृष्टि 'पर' को ग्रहण नहीं करती, एक
प्राप्त हो रही है। उत्पाद-व्यय क्या है ? एक ही बात को अकेली वस्तु को ग्रहण करती है, इसलिए वह प्रादमी अपने । में है, रस्सी का अस्तित्व रस्मी मे है रस्मी अादमीरूप
दो प्रकार से रखना है-एक घड़ा फूट गया और दूसरे
उसके कपाल बन गये। जब व्यय की दृष्टि से देखें तो नही हो गई, अादमी रस्सीरूप नही हो गया । इसलिए वहाँ मात्र वह आदमी ही दृष्टिगोचर होगा। परन्तु पर्या
कहते है घड़ा फूट गया और उत्पाद दृष्टि से देखते है तो यरूप से देखे तो वह बंधा हुमा दिखाई देगा। इस प्रकार
कहते है कपाल बन गया। परन्तु असल में देखा जाय तो इन दोनो दृष्टियो से देखने से फायदा यह हुआ कि यह
घड़े का फूटना, कपाल का होना, एक ही बात है। इसबात समझ में आ गयी कि बन्धन बाहर से आया हा
लिए घड़े का फटने रूप व्यय और कपाल की उत्पत्ति है । वस्तु का अपना रूप नहीं। अलग हो सकता है, वस्त रूप उत्पाद एक समय मे हुआ है और मट्टी-मट्री रूप से के साथ एकपने को प्राप्त नही है ।
दोनो अवस्थाओं में एक रूप ध्रुव है।
दूसरी बात यह है कि जब द्रव्य रूप से देखते है तो चौथी बात है, असंयुक्त प्रात्मा की द्रव्य दष्टि से देखें मात्मा प्रनेको अवस्थानो मे जाते हए भी अपने एकपने तो प्रात्मा एक अकेला चैतन्य है। परन्तु पर्याय रूप से को नही छोड़ता, अपने एक चैतन्य स्वभाव को नही देख ता रागा-द्वपा हा रहा है । जस घा है, वह भाग पर छोडता। परन्तु उसी समय पर्याय रूप से देखें तो हर रख कर गर्म कर दिया जावे तो पहले ठडा था, अब गर्म वस्था अलग-अलग है। जैसे मट्टी का घड़ा, मटकना हो गया । गम होने हर में
हो गया। गर्म होने हर भी घी अपने चिकनेपन स्वभाव आदि बने है, उस घड़े और मटकने को न देखकर मात्र को नहीं छोड़ रहा है। चिकनेपने को दृष्टि में लेकर मट्टी को देखें तो घड़ा और मटकने में बड़ा अन्तर है। इस विचार करें तो वह एकरूप है और ठंडे-गर्मपने को लेकर बात को दोनों दृष्टियो से समझने पर एक अवस्था के विचार करें तो पहले ठंडा था, अब गर्म है। बदली होने पर वह यह नहीं समझेगा कि वस्तु का सर्वथा अविशेष याने प्रात्मा को प्रभेद रूप से देखें तो प्रात्मा नाश हो गया। वह यही समझेगा कि वस्तु की मात्र एक अखण्ड रूप दृष्टिगोचर होती है। परन्तु गुणो के भेदो