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स्यावाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन
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को लेकर मोचें तो ज्ञान गुण अलग है, उसका कृत्य अलग इससे मालूम होता है कि वस्तु में दो धर्म है । जहाँ अपने है और दर्शन आदि गुण अलग-अलग है। प्रमाण दृष्टि से अस्तित्वपने का धर्म है वहाँ 'पर' के नास्तिकपने का भी देखें तो जिस समय अभेद रूप है, उसी समय भेद रूप भी धर्म है। जैसे कोर्ट में कहा जाता है कि मैं सत्य कहूँगा, सत्य है। इमलिए वस्तु को निश्चय व्यवहार प, सामान्य- के अलावा अन्य कुछ नही कहूँगा । आप अगर केवल विशेषात्मक जैसी की तमी देखनही वास्तविकता है। इतना ही कहे कि मत्य कहगा तो वात पूरी नही होती, उदाहरण के रूप में तीन यादमी है, वे एक सर्राफ की साथ मे यह भी कहना पड़ता है कि सत्य के अलावा अन्य दूकान पर जाते है। एक को सोना लेना है एक को सोने
कुछ नहीं कहूँगा। अगर हम कहे, यह मात्मा, है इससे
: का बना घडा लेना है, एक को घड़े के टुकडे लेने है। इतनी बात तो बनी, यह आत्मा है परन्तु यह प्रात्मा होने सर्राफ की दूकान पर मोने का घड़ा पड़ा है। तीनो पादमी के साथ अन्य भी कुछ हो सकती है यह बात अभी बनी
वाहिए था, वह खुश होता है। रह गई । तब यह पहना जरूरी हो गया कि यह प्रात्मा उसकी चीज मिल रही है। एक को घडे के टुकड़े लेने थे, है और प्रात्मा के अलावा अन्य कुछ नहीं । इस प्रकार वह दुःखी होता है। मोना लेने वाले को न सुख होता है।
सुख होता है जहाँ प्रात्मा का अस्तित्व बताया है, वहाँ उसमे 'पर' का न दुख है। सर्राफ दिगाने को घड़ा ले कर पाता है। नास्तित्व भी बताया गया है, तब प्रात्मा प्रात्मा रूप से उसके हाथ मे घडा छूट जाता है और टुकड़े हो जाते है।
कायम होती है। जिसको टुकड़े लेने थे, वह हपित हो जाता है। जिसको
मामान्य-विशेष दोनों परम्पर विरुद्ध है। अत एव जब घड़ा लेना था, वह विपाद को प्राप्त होता है और जिसकी
सामान्य की प्रधानता होती है उस समय सामान्य के विधिदृष्टि सोने पर है, वह बैमा हो है। इससे यह साबित हुमा
रूप होने से विशेष निषेध रूप कहा जाता है और जब कि पर्याय तो नाशवान है, अनित्य है और द्रव्य रवभाव
विशेष की प्रधानता होती है उस समय विशेष के विधिरूप पर जिसकी दृष्टि है उसे पर्याय के बदलने पर दुख नही
होने से सामान्य निषेध रूप कहा जाता है। इस अपेक्षा होता । जो द्रव्य स्वभाव को नहीं जानता, जिमकी दृष्टि ।
6 से सामान्य और विशेष मे विधि-निषेध धर्मों की कल्पना मात्र पर्याय पर है यह दुखी-मुम्बी होता रहेगा।
की जा सकती है । यही बात स्थाद्वाद के सा भगो के द्वारा इसी प्रकार अन्य लोग कहते है नेति-नेति, याने नहीं दिखाई गई है। जैसे--- एक घडा है उसका कथन करना है, नही है। वे लोग तो समार को माया कहने को एसा है-(१) यह घडा है -यह अस्ति रूप कथन है। (२) कहते है परन्तु इसका अमली अर्थ है कि 'पर' है तो सही यह अन्य नहीं-- यह नास्तिक रूप कथन है । सवाल यह परन्तु मेरे में नहीं है । उससे मेरा अपना क्या वास्ता है। पैदा होता है कि दोनो बानो में से कौन सी है । तो वह 'पर' भी है और मैं भी हूँ परन्तु 'पर' मेरे में नहीं है। कहता है-(३) म्याद अस्ति, स्याद नास्ति । फिर सवाल यह अर्थ असल में नेति का होता है। इसी प्रकार जो लोग
पंदा होता है-क्या यह जो अस्तिपना और नारितपना दोनो कहते है कि शून्य है, कुछ नही है, वहाँ पर भी यही अर्थ
स्प है, वह ग्राम पीछे है कि एक साथ है ? तब है तो है कि प्रात्मा शून्य नहीं परन्तु प्रात्मा 'पर' से शून्य है,
एक माथ, परन्तु एक साथ कथन नहीं कर सकते इसलिए मात्मा मे 'पर" नही है।
चौथा भंग बनता है, (४) स्याद प्रवक्तव्य अर्थात् एक अनेकान्त का विचार तो कर लिया। अब स्याद्वाद साथ नही कहा जा सकता। इस प्रकार इम स्याद्वाद के पर विचार करते है। वस्तु द्रव्य पर्याय रूप से है और द्वारा वस्तु की सत्यता में कही सन्देह ही नहीं रहने दिया। हरेक वस्तु दूसरे से भिन्न है। जहां एक वस्तु में अपना इसको लेकर कुछ लोग कहते है कि हमें तो सबकी बात अस्तित्व है, वहां पर उसी वस्तु में दूसरी वस्तु का प्रभाव मन्जूर है क्योकि हम तो स्याद्वाद को मानने वाले है।मा भी है । जहाँ वस्तु कह रही है कि मैं मेज हूँ, वहां वह यह स्याद्वाद का अर्थ नहीं । स्याद्वाद का अर्थ है कि हमें जैसी भी ज्ञान करा रही है कि वह कुर्सी प्रादि अन्य नहीं है। वस्तु है, वसी मन्जूर है, वस्तु से अन्यथापना मन्जर नहीं