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१०६, बर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
बाहरी रथिकामों में तीर्थकर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयीं। मन्दिर (मन्दिर नं० १२, ८६२) के मण्डोवर पर उत्कीर्ण उड़ीसा के जैन धर्म के महान संरक्षक राष्ट्रकूट शासकों के है। खण्डगिरि की ही विशल या हनुमान गुफा में भी २४ प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत पाने के फलस्वरूप भी सम्भवतः तीर्थंकरों की लांछनयुक्त मूर्तियाँ अंकित है। ललाटेन्दुजैन-मूर्ति-निर्माण को प्रोत्साहन मिला था। राष्ट्रकूट- केसरी एवं हनुमान गुफामों में भी लगभग ८वी हवींशासक गोविन्द ततीय कौशल, कलिंग, वंग और प्रौद्रक की शती को जैन मतियां उत्कीर्ण है। इस प्रकार शिल्पगत विजय का उल्लेख करता है।
साक्ष्य मे यह सर्वथा स्पष्ट है कि लगभग ८वी-6वींअन्य साक्ष्यों के प्रभाव भी उडीसा के विभिन्न क्षेत्रो शती से १२वीं शती तक निरन्तर जैन धर्म उदयगिरिसे प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियां उन स्थलों पर किसी न खण्डगिरि मे प्रभावशाली रहा था। किसी रूप में जन धर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं । उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफापो के अतिरिक्त जयपुर
२४ तीर्थकरो एवं यक्षियो के सामूहिक चित्रण इस
बात के सूचक हैं कि जैन प्रतिमा-विधान के सन्दर्भ में हो मन्दनपुर और कोरपुत जिले के भैरवसिंह पुर जैसे स्थलो से भी जैन मूर्तियां प्राप्त होती है। साथ ही कियौंज्झर,
रहे विकास से इस क्षेत्र के कलाकार अवगत थे। फिर भी मयूरभंज, वलसोर (चरंपा), और कटक (जजपुर) जिलों
किसी निश्चित प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थ के प्रभाव में कुछ के विभिन्न स्थलों से भी जैन मतियों के उदाहरण प्राप्त
यक्षियों के निरूपण में ब्राह्मण एव बौद्ध धर्मों की देवियों होते है । कटक जिले के जजपूर स्थित अखण्डलेश्वर मंदिर
के लाक्षणिक स्वरूपों के स्पष्ट अनुकरण किए गए हैं। एवं मंत्रक मन्दिर के समूहों में भी जैन मूर्तियाँ सुरक्षित
ये अनुकरण इन धर्मों के प्रपेक्षाकृत विकसित एवं प्रभावहैं। ये जैन मूर्तियां प्रमाणित करती हैं कि शाक्त क्षेत्र
शाली रहे होने के भी सूचक हैं । शांतिनाथ, अग्नाथ एवं होने के बाद भी जैन धर्म यहाँ लोकप्रिय था।
नमिनाथ की यक्षियों के निरूपण मे क्रमश: गजलक्ष्मी,
तारा (बौद्ध देवी) एवं ब्रह्माणी के प्रभाव स्पष्ट है। उडीसा में दिगम्बर सम्प्रदाय ही लोकप्रिय था, इसकी पुष्टि तीर्थंकरों की निर्वस्त्र प्रतिमाओं से होती है। उड़ीसा सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि लगभग ८वी शती के विभिन्न स्थलों से प्राप्त जिन-मृतियों में लोकप्रियता ई० पू० में पार्श्वनाथ के समय में जैन धर्म के उड़ीसा में की दृष्टि से क्रमशः पार्श्वनाथ, आदिनाथ एवं महावीर प्रवेश के पश्चात् से लगभग प्रथम शती ई० पू० तक यह प्रमुख है। मूर्तियों में पार्श्वनाथ का सर्वाधिक लोकप्रिय निरन्तर इस क्षेत्र में लोकप्रिय रहा । साथ ही प्रथम शती होना, उनके इस क्षेत्र से सम्बन्ध रहे होने का सूचक हो ई० पू० के बाद भी जैन धर्म के इस क्षेत्र में किसी न सकता है। स्वतन्त्र तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त द्वितीर्थी किसी रूप में अस्तित्व की पुष्टि दाथावंश एवं ह्वेनसांग जिन मूर्ति (ब्रिटिश संग्रहालय), अम्बिका, सरस्वती एवं के उल्लेखों से होती है । पर जैन मूर्ति-विधान की दृष्टि यक्षियाँ अन्य लोकप्रिय विषय-वस्तु रही हैं। जन प्रतिमा- से ८वी शती के उपरान्त ही इस क्षेत्र का महत्व स्थाविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण खंड- पित हो सका था, जहाँ छोटे केन्द्रों के अतिरिक्त उदयगिरि पहाड़ी पर स्थित नवमुनि (लगभग ११वी शती) गिरि खण्डगिरि पहाडियों की गुफानों में बहुलता से जैन एवं बारभुजी (लगभग ११वीं-१२वीं शती) गुंफानों की मूर्तियों का निर्माण किया गया। मूर्तियाँ हैं । नवमुनि गुफा मे १० तीर्थंकरों के साथ उनसे सम्बद्ध यक्षियों को उत्कीर्ण किया गया है। और बारभुजी गुफा में २४ तीर्थंकरों के साथ उनसे सम्बद्ध यक्षियों को
जनियर रिसर्च फैलो, मूर्तिगत किया गया है। ज्ञातव्य है कि २४ यक्षियों के
पार्श्वनाथ विद्याश्रम) सामूहिक चित्रण का यह एकमात्र दूसरा ज्ञात उदाहरण
डी- ५१११६४-बी, सूरजकुण्ड, है । पहला प्रारम्भिक उदाहरण देवगढ़ के शान्तिनाथ
वाराणसी-२२१००१ (उ० प्र०)