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भगवान महावीर का जीवन-र्शन : प्राथनिक सन्दर्भ में
उमई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना कि सापेक्ष स्तर पर सत्य को उसके सन्दर्भो में देखा जाय की। 'परोस्परोपग्रहो जीवानाम' अर्थात जीवो के प्रति और उसे उन सन्दर्भो में अंतर्निहित रूपों के द्वारा सम्मापरस्पर उपकार की भावना ही उनकी साधना का लक्ष्य वित किया जाय । सत्य के सन्दर्भ में 'स्व' और 'पर' की था।
भावना व्यर्थ है । सत्य चंकि नियक्तिक सत्ता है, इसलिए जीवन का मजिक्रमस अर्थ के स्तर पर ही नही,
उसका साक्षात्कार निर्वैयक्तिक स्तर पर ही सम्भव है। सबनम मौर विचार के स्तर पर भी होता है । अपने यही कारण है कि महावीर की भाषा स्याद्वादी है। यह विचारो को दूसरों पर बाद कर उन्हें तदनुकल चलने के 'स्यात्' शब्द जागतिक स्तर पर सापेक्षता की सूचना देता लिए बाध्य करना भयावह हिंसा है। है तो यह भाव- है। इस सापेक्षता को समझने की अनाग्रह-वत्ति को ही हिंसा, किन्तु इसका दुष्प्रभाव द्रव्य-हिंसा से भी अधिक 'भनेकान्त' कहते है। तीव्र होता है । भावहिसा ही अन्ततोगत्वा द्रव्याहिसा उपरिविवेचित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की में बदल जाती है। विशेषतया धर्म के नाम पर इस प्रकार त्रयी में अहिंसा सुमेरु की तरह प्रतिष्ठित है । कहना यह की हिंसा बहुत होती रहती है । मध्यकालीन यूरोप के कि महावीर का सम्पूर्ण जीवन-चक्र अहिंसा की धुरी पर धर्मयुद्ध इसके साक्षी हैं । मनुष्य ने धर्म के नाम पर मनुष्य ही धमता है। अहिंसा की साधना के लिए हिंसा का परिको जिन्दा जलाया, उसका रक्त बहाया और उसकी इज्जत- ज्ञान परमावश्यक है। क्योंकि हिंसा के अनेक प्रायाम है, घाबरू के साथ खिलवाड़ किया । आज भी देश में साम्प्र- जिनके समानान्तर ही अहिंसा के पायाम स्थित है । शरीर बायिक उन्माद यदा-कदा फूट पड़ता है। धर्म के नाम पर के स्तर पर हिंसा प्राणातिपात है, जीवन-साधनों के स्तर ही यह देश सण्डित हुमा और घोर लज्जाजनक संहार- पर होने वाली हिंसा परिग्रह है और विचारों के स्तर पर लीलाएं हुई। कहना न होगा कि साम्प्रदायिक संकीर्णता को जाने वाली हिंसा एकान्तवादी प्राग्रह है। इसलिए, बैचारिक सहिष्णता को उमारती है । इस संदर्भ में भग- अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के बीच कोई विभाजक वान महावीर का अनेकान्तवाद, प्राधुनिक समाजवादी- रेखा नही खीची जा सकती । तीनो अहिंसा की ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से अतिशय निकट होने के मूलभूत प्राण सत्ता की अभिव्यक्तियां है। अहिंसा की साथ ही वैयक्तिक तथा सामाजिक विचारों को स्वस्थ समग्र साधना के रूप में ही अपरिग्रह पोर अनेकान्त समाबनाने में ततोऽधिक प्रभावकारी है।
हित हैं। इन्हे ही हम 'रत्नत्रय' भी कह सकते है : अनेमहावीर का कथन है-सत्य अनन्तमल है। अपने को कान्त सम्यग्ज्ञान है, अपरिग्रह सम्यग्दर्शन है और अहिंसा ऐकान्तिक रूप से सही मानना और दूसरे को गलत सम- सम्यक्चारित्र है। अहिंसा ही जीवन की सही दष्टि भना सत्य का अपलाप करना है। किसी को सर्वथा गलत वही जी पायेगा, जो जीने देगा। किसी की भी जीवन मानना वैचारिक स्तर पर हिंसा है, उसकी जीवन-सत्ता सत्ता का अतिक्रमण हमारी अपनी ही जीवन सत्ता की कों अस्वीकार करना है। इससे स्वयं सत्य की हत्या होती अतिक्रमण है। है। एक दसरे का सत्य परस्पर सण्डित होने पर दोमो कुल मिला कर, भगवान महावीर के जैन धर्मजन सम्म स्तर पर समान प्रतिष्ठा के योग्य है। किसी का का सीधा उद्देश्य सामाजिक आन्दोलन से मaz पत्र उसे पिता कहता है, तो बहन उसे भाई कह कर पुका- के तीन मुख्य भग होते है : दर्शन, कर्मकाण्ड और समाज.
तो इसलिए वह न केवल पिता है, न भाई ही है, नीति । आधुनिक सन्दर्भ मे किसी भी धर्म की उपयोगिता प्रतिमापेक्ष स्तर पर वह पिता और भाई दोनो ही है। का मूल्यांकन उसकी समाजनीति से किया जाता है। महाप्रत एव. किसी बात पर एकान्त भामह हिसा है, जोबम बोर के प्रवचनों से स्पष्ट है कि जैनधर्म की उत्पत्ति तत्का
THI किन्त. अनेकान्तिक मामह महिला है, लीन भाडम्बर पूर्ण, समाज-व्यवस्था के विरोध में एक जीवन का सम्मान है। अनेकान्त दर्शन का सार यही है सशक्त क्रान्ति के रूप में हुई थी। महावीर ने वर्ग-वषय