________________
२२०, बर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
भगवान ऋषभदेव के अनन्तर, द्वितीय तीर्थकर श्री क्रान्ति की। पारस्परिक खण्डन-मण्डन में व्यस्त दार्षतिकों अजितनाथ से लेकर २१वें तीर्थंकर श्री नमिनाथ तक के को स्याद्वाद तथा अनेकान्त का महामन्त्र देकर सम्मार्ग काल का ऐतिहासिक अनुशीलन, पुरातात्त्विक प्रमाणों के दिखाया। लोक-भाषा में उपदेश देकर उन्होंने पण्डिों के प्रभाव में, अभी सम्भव नहीं हो पाया है। बाईसवें तीर्थ- निरंकुश वर्चस्व को समाप्त किया और वैचारिक-जगत् मे दूर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) का ऐतिहासिक अस्तित्व कान्ति की। अनेक विद्वानो द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है। भगवान महावीर के ही समय में महात्मा बुद्ध का तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ तो अब ऐतिहासिक महा- माविर्भाव हमा, जिन्होंने श्रमण-संस्कृति की अन्य धारापुरुषों की कोटि में पा चुके हैं। अहिंसा के इतिहास में बौद्ध धर्म का 'मध्यम मार्ग'-प्रतिपादित किया। भगवान् पार्श्वनाथ का 'चातुर्याम' अपूर्व कोटि का माना जाता है। महावीर तथा महात्मा बुद्ध की समकालीनता के कारण कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान् महावीर और महात्मा श्रमण-सस्कृति की दोनो घारामों-जन तथा बौद्ध-के बुद्ध की सुविकसित अहिंसा का मूल उद्गम पार्श्वनाथ का सिवान्तों तथा पारिभाषिक शब्दावली में किंचित समानता चातुर्याम ही है।"
स्वाभाविक ही है। भ० महावीर तथा बुद्ध के लिए प्रयुक्त भारतीय इतिहास में ईसा-पूर्व छठी शताब्दी का काल 'जिन' तथा 'अर्हत्' शब्द इस बात के ज्वलन्त प्रमाण' हैं। विशेष महत्वपूर्ण रहा है। वस्तुत: यह काल संक्रान्ति-काल इसी प्रकार दोनों सम्प्रदायों के साधु-संन्यासी 'श्रमण' था जिसमे प्रागैतिहासिक युग की मान्यताएं शनैः शनैः कहलाए । विकृत रूप धारण कर रही थी। लोग धर्म के वास्तविक इस प्रकार लगभग पांच हजार वर्षों से श्रमण संस्कृति स्वरूप को पुरोहित-वर्ग के क्रियाकांड में फंस कर भूल की स्रोतस्विनी अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित होती आ रही है । चुके थे और वे प्रश्वमेध मादि यज्ञो में प्राणियों के बलि- समय-समय पर इसे अनेक बाधानों का सामना करना पड़ा दान को ही धर्म की इतिश्री मानने लगे थे। वाणी-रहित है। एक युग में तो स्थिति यहाँ तक विषम हो गई थी दीन एवं निरीह पशुओं का क्रन्दन सामूहिक मन्त्रोच्चार कि श्रमणो तथा ब्राह्मणों का विरोध शाश्वत माना जाने की ध्वनि में विलीन कर दिया जाता था । क्षणिक मानन्द लगा। विरोधी प्रहारो को सहन करते हुए भी नि.श्रेयस् ही मनुष्य का ध्येय बन गया था और इस ध्येय पूर्ति का की सिद्धि में संलग्न श्रमण अदम्य सहिष्णुता, त्याग-वृत्ति साधन माना जाता था-यशो का कर्मकाण्ड । पुरोहित- एवं साधना का प्राश्रय लेकर श्रमण संस्कृति का विकास वर्ग के वशीभूत कतिपय शक्तिशाली राजाओं का प्राश्रय एवं प्रसार करते रहे। पाकर यह यज्ञवाद इतना प्रबल हो चुका था कि किसी
भ. महावीर के २५००वें परिनिर्वाण-महोत्सव-वर्ष साधारण व्यक्ति के लिए इसका विरोध करना असम्भव
की इस पावन वेला मे हमारा कर्तव्य है कि हम भाचार हो गया था।
एव विचार मे श्रमण संस्कृति के पवित्र प्रादों को ग्रहण ऐसे संकटग्रस्त काल मे वैशाली के राजकुमार वर्धमान
1 करके देश-विदेश में इसका प्रचार एवं प्रसार करें।
र महावीर ने एक सर्वतोमुखी क्रान्ति का सूत्रपात किया। उन्होंने अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहइन पांच महाव्रतों (श्रमणों के लिए) तथा अणुव्रतों १४६४, कूचा सेठ, (श्रावकों के लिए) का विधान करके भाचार जगत् में दरीबा, दिल्ली-६ १५. (क) श्री धर्मानन्द कौशाम्बी- भारतीय संस्कृति १७. 'येषां च विरोषः शाश्वतिकः' (मष्टाध्यायी, २४९) और महिंसा, पृष्ठ ५७
पर पातंजल महाभाष्य-"येषां च-'इत्यस्यावकाशः (ख) The Religion of Ahinsa, P. 14.
मार्जार-मूषकं श्रमणब्राह्मणमित्यादी ज्ञेयः" । १६. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृष्ठ २८-२९.