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२६४, वर्ष २८, कि०
अनेकान्त
अहिंसा की परम्परा को आगे बढ़ाया, उसे नया मोड़ दिया। स्थिति मधिक समय तक चलने वाली नहीं है। यातायात उन्होंने जहाँ वैयक्तिक जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा की, के साधनों ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है और वहां उसे सामाजिक तथा राजनैतिक कार्यों की माधार- छोटे-बड़े सभी राष्ट्र यह मानने लगे हैं कि उनका अस्तित्व शिला भी बनाया। अहिंसा के वैयक्तिक एवं सामूहिक युद्ध से नहीं, प्रेम से ही सुरक्षित रह सकता है । पर उनमें प्रयोग के जितने दृष्टान्त हमें गांधीजी के जीवन में मिलते अभी इतना साहस नही है कि वर्ष में ३६४ दिन संहारक हैं, उतने कदाचित किसी दूसरे महापुरुष के जीवन में नहीं अस्त्रों का निर्माण करें और ३६५वें दिन उन सारे अस्त्रों मिलते।
को समुद्र में फेंक दें। अहिंसा अब नये मोड़ पर खड़ी है
और संकेत करके कह रही है कि विज्ञान के साथ अध्यात्म हिसा-प्रहिंसा की प्रांख-मिचौनी:
को जोड़ो और वैज्ञानिक प्राविष्कारों को रचनात्मक पर दुर्भाग्य से हिंसा और अहिंसा की प्रांख-मिचौनी दिशा में मोडो। जीवन का चरम लक्ष्य सुख और शांति माज भी चल रही है। गांधीजी ने अपने प्रात्मिक नल से है। उसकी उपलब्धि संघर्ष से नहीं, सद्भाव से होगी। अहिंसा को जो प्रतिष्ठा प्रदान की थी, वह प्रब क्षीण अहिंसा में निराशा को स्थान नहीं । वह जानती है कि उषा हो गयी है। अहिंसा की तेजस्विता मन्द पड़ गयी है, हिंसा के प्रागमन से पूर्व रात्रि के अन्तिम प्रहर का अन्धकार का स्वर प्रखर हो गया है। इसीसे हम देखते हैं कि प्राज गहनतम होता है । आज विश्व में जो कुछ हो रहा है। वह चारों ओर हिंसा का बोलबाला है। विज्ञान की कृपा से इस बात का सूचक है कि अब शीघ्र ही नये युग का उदय नये-नये पाविष्कार हो रहे है और शक्तिशाली राष्ट्रों को होगा और संसार में यह विवेक जागृत होगा कि मानव प्रभुता का प्राधार विनाशकारी प्राणविक अस्त्र बने हुए तथा मानव-नीति से अधिक श्रेष्ठ और कुछ नहीं है । प्राज हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के नरसंहार की कहानी नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, वह दिन प्रायेगा जब
और वहां के प्रसंख्य पीड़ितों की कराह प्राज भी दिग्- राष्ट नया साहस बटोर पायेंगे और वीर-शासन के सर्वोदिगंत में व्याप्त है, फिर भी राष्ट्रों की भौतिक महत्वा- दय तीर्थ तथा गांधी के रामराज्य की कल्पना को चरितार्थ कांक्षा तथा अधिकार-लिप्सा तृप्त नहीं हो पा रही है। करेंगे। संहारक प्रस्त्रों का निर्माण तेजी से हो रहा है और उनका भगवान महावीर के निर्वाण-महोत्सव-वर्ष में हम प्रयोग माज भी कुछ राष्ट्र बेघड़क कर रहे है।
अपने जीवन मे नया मोड़ ला सकें तो उससे हमारा भला लेकिन हम यह न भूलें कि अहिंसा की जड़ें बहुत होगा और समाज का भी कल्याण होगा। चारित्र्य के बिना गहरी हैं। उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है। उसका ज्ञान और दर्शन अधूरे है, इस सत्य को हमें अच्छी तरह विकास निरन्तर होता गया है और अब भी उसकी प्रगति हृदयंगम कर लेना चाहिए। रुकेगी नही । हम दो विश्वयुद्ध देख चुके है और भाज भी
00 शीतयुद्ध की विभीषिका देख रहे हैं। विजेता और परा- ७/८, दरियागंज, जित, दोनों ही अनुभव कर रहे हैं कि यह भस्वाभाविक
दिल्ली।